SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७८ ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. प्राण इंद्री वली देह संवर करी, रोकि संकल्प मन मोह भंजी; धन्य निज ध्यान आनंद आलंब धरि, शुद्धपद आत्मनी ज्योति रंजी. ७ म० हेय आदेय त्रिभुवन गणै साधु जे, क्षय करे पुण्यने पाप केरो; आत्म आनंद स्याद्वादथी विषयने, विष गिणी भंजता कर्म घेरो. ८ म० कार्य संसारना साधता ज्ञान विग, जगतमे एहवा बुहत दीसे; काटी भव दुप वलि ज्ञान जल झीलता, एहवा साध दोय तीन दीसै. ९ म० वडे प्रासादमै नरम पत्यंक परि, राति जै पौढता नारिसंगै; तेह गिरि कंदरा कठन शिला उपरे, रहे नित जागतां ध्यानरंगे १० म० चित्त थिर रागनै द्वेषनो क्षय करी, जीप इंद्रीय आरंभ छोडी; ज्ञान उद्दीपना थकी आनंदमय, देषि निज देवने कर्म मोडी. ११म० छोडि परसंग आत्मा भणी सिद्ध समा, ध्यावतां सुमतिसुं मोह वारे; आत्मस्वभावगत जगत सहु अन्य गिणि, ज्ञाननिधि मोक्षलक्ष्मी सुधारे. १२ म० तत्त्वचिंता करे विषयने परिहरे, स्वहित निजज्ञान आनंद दरीयो; सुमतिसंयुक्त तप ध्यान संयम सहित एहवो साथ चारित्र भरीयो. १३ म० हवा पंडित वचनरचनाथकी, नित थुणे आत्मने बहुत असा; शुद्ध अनुभूति आनंदसुं राचीया, कटै भवपास दुरलंभ तेसा. १४ म० हवा योगधारी जिके मुनिवरू, ध्यान निश्चल ति केइज राधैः ध्याननें योग अणयोग्यनी ए कथा, ग्रंथ अनुसार मुनिचंद भाषे. १५ म० २६ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy