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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. आतम गुणधारी, सगला सुष एह संसारी; चितमे दुषरूप विचारी, मद मारी रे होइज्यो हितकारी. २ आ० चवीय पवन परिभव भमी रे, पडे नर कगतिमाहिः जगत विडंबन ते लहै, तिहां ऊंच नीच कुल साहि रे. ३ आ० देव चवी कुकर हुवे रे, कुकर देव ज होइ; श्वान हुवै श्रोत्रीया मरि, मातगयी वडव जोइ रे. ४ आ० रूप ग्रहे बल छोड ने रे, नटुआ जेम सदीव; अति दुष मिथ्यातूं तप्या, ए पंच प्रकार जीव रे. ५ आ० द्रव्य क्षेत्र भव भावयी रे, कालादिक बहु दुक्ख; सख संग प्राणी लह्या, बस थावर करी रूप रे. ६ आ० चौगति योनि न का रही रे, को न रह्यो कुल देशः इण प्राणी सुष दुष पणे, लाध्या अनंत प्रदेश रे. ७ आ० बंधु न को न को रिपु अछे रे, इण संसार अगाहः राजा मरि कीटक हुवे, तिम कीटकथी नरनाह रे. ८ आ० मात सुता स्त्री अंगजा रे, भगिनी तेहि ज नारः । पिता पुत्र ते सुत पिता, ए पामे पद बहु वार रे. ९ आ० नरक दुषै क्षेत्रादिना रे, दीठा दुष अनेका भार मूष त्रिष श्रम घमे, तिर्यंचगति अविवेक रे. १० आ० मानव उद्यम बहु करै रे, रागदिक दुष देषः । भमतां इण संसारमे ते, दीठा दुष नितमेव रे. ११ आ. दूहा. एण मुवन मरुदेसमे, पीडित नित दुष आग, फियौँ एकाकी जीवडो, पिण, न धर्यो वैराग. - कर्म शुभाशुभ भोगवै, इण देहै ए जीव; देवादिक पिण, सुष सह, आपदरूप सदीव. For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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