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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. तथा जेम क्रोधी हुं मानी हुं अथवा देवता हुं मनुष्य हुँ इत्यादि देवतापणो ते हेतुपणे परिणमतां ग्रह्या जे देवगतिविपाकी कर्म तेने उदयरूप परभाव छे तेपण यथार्थ ज्ञान विना भेदज्ञानशून्य जीवने एक करी माने छे ते अशुद्ध व्यवहार कहिये तेना बे भेद छे. १ संश्लेषित अशुद्ध व्यवहार ते जे शरीर मारुं हुं शरीरी इत्यादिक संश्लेषित असद्भूत व्यवहार, २ असंश्लेषित अशुद्ध व्यवहार ते आ पुत्र मारो धनादिक मारा एम कहेवू ते असंश्लेषित असद्भूत व्यवहार तेना उपचरित अनुपचरित ए बे भेद जाणवा. तथा विशेषावश्यक महाभाष्यमां कयुं छे जे व्यवहारनयना मूल बे मेद छे एक वेहेचणरूप व्यवहार बीजो प्रवृत्ति व्यवहार ते वली प्रवृत्तिना त्रण भेद छे, १ वस्तु प्रवृत्ति, २ साधन प्रवृत्ति, ३ लौकिक प्रवृत्ति तेमां वली साधन प्रवृत्तिना त्रण भेद छ, १ जे अरिहंतनी आज्ञायें शुद्ध साधनमार्गे इहलोक संसार पुद्गलभोग आशंसादि दोष रहित जे रनवयीनी परिणति परभावत्याग सहित ते लोकोत्तर साधन प्रवृत्ति, २ जे स्याद्वाद विना मिथ्यामिनिवेश सहित साधनप्रवृत्ति ते कुप्रावचनिक साधनप्रवृत्ति, ३ अने जे लोकना स्वस्वदेश कुलनी चाले प्रवृत्ति ते लोकव्यवहार प्रवृत्ति ए त्रण प्रवृत्ति कहिये. ए व्यवहारनयना भेद जाणवा. तिहां द्वादशसार नयचक्रमा एकेक नयना सो सो भेद कह्या छे ते जैनशासन रहस्यना जाण जीवे ते ग्रंथमाथी धारवा ए व्यवहारनय कह्यो. उज्जं ऋजु सुयं नाणमुज्जुसुयमस्स सोऽयमुज्जुसुओ। मुत्तयइ वा जमुज्जु वत्थं तेणुज्जुमुत्तोत्ति ॥१॥ उऊंति For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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