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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवचंद्रजीकृत नयचकसार. कहिये. ते वक्तव्य धर्मथी अवक्तव्य धर्म अनंतगुणा छे. वचनतो संख्याता छे पण ते वचनोमां एवो सामर्थ्य छ जे अवक्तव्य धर्म सर्वनो ज्ञानपणो थाय. उक्तं च अमिलप्पा जे भावा, अणतभागो य अणमिलप्पाणं, अमिलप्पसाणतो, भाग सुए निबद्धो अ ॥ १ ॥ तत्र के० तिहां अक्षर संख्याता छे ते अक्षरना सन्निपात संयोगीभाव असंख्याता छे ते अक्षर संन्निपातने ग्रहवाय एवा जे पदार्थादिकना भाव ते अनंतगुणा छे, तेथी अवक्तव्य भाव अनंतगुणा छे, जे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अमिलाप्यभावनो परोक्षप्रमाणे ग्राहक छे. अवधिज्ञान ते पुद्गलनो प्रत्यक्ष प्रमाणे जाणग छे, पण एक परमाणुना सर्व पर्यायने जाणे नही. केटलाक पर्यायने जाणे ते पण असंख्यात समये जाणे अने केवलज्ञान ए छ द्रव्यना सर्व पर्यायने एक समयमा प्रत्यक्ष जाणे. माटे जो द्रव्यमां वक्तव्यपणो न होय तो श्रुतज्ञाने ग्रहण थाय नही अने जे ग्रंथाभ्यास, उपदेशादिक, सर्व काम थाय छे तेतो एम नथी माटे द्रव्यमां व्यक्तव्यपणो छे. ___ अवक्तव्याभावे के० अवक्तव्यपणाने न मानियें तो अतीतपर्याय ते वस्तुमां कारणतानी परंपरामा रह्या छे, तथा अनागतपर्याय सर्व योग्यतामा रह्या छे ते सर्वनो अभाव थाय, ते वारें वस्तुमा वर्तमान पर्यायनी ति पामिये तेथी अतीत अनागतनो ज्ञान थाय नही, माटे अवक्तव्य स्वभाव अवश्य मानवो अने .वर्तमान सर्व कार्य ते निराधार थइ जाय अने द्रव्यमां एक समयमां अनंता कारण छे ते अनंता कारणना अनंता कार्य धर्म छे अने अनंता कार्यना अनंता कारण परंपरानुं ज्ञान ते केवलीने छे अने वर्तमानकाले कारण धर्म तथा कार्य धर्मयी अनंतगुणा कारण कार्यनी योग्यरूप सत्ता छे ते कोइना अवि For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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