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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. जे भवन धर्मनो वर्तवो तेनो तिरोभाव थयो कहियें. जेम विणस्यो घट जे मृत्पिंडने विषे ते चक्रादि कारणे प्रगट थयो, जे घट तेने प्रध्वंसें विनाश कहियें. एम द्रव्यने विषे कार्य करवारूप जे पर्याय तेने तिरोभावें अन्यपणे कार्यकरण रीते समवस्थान जे रहेवुं ते समयें ते भवनवृत्ति कहियें. तथा तिरोभावपणाने अभावें थावुं जे कपालादिक उत्तर भवन तेपणे वर्त्तवं ए पण भवन धर्म छे. एम अनुक्रमे अविच्छिन्न निरंतर रूपें इत्यादिक अनेक आकारें द्रव्य तेज भवन लक्षण कहियें. ए भव्य स्वभाव जाणवो द्रव्यनेविषे जे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमयेत्व, अगुरुलघुत्वादिक धर्म, ते त्रणे कालमां मूल अवस्थाने अपरित्यागे के तजता नथी. तेहिज रूपपणे रहे. एहवा जेटला धर्म ते अभव्यस्वभाव जाणवो जे अनेक उत्पाद व्ययने परिणमने फिरने फिरे पण जीवनो जीवपणो पलटाय नही तेमज अजीवनो अजीवपणो पलटाय नही ए सर्व अभव्य स्वभाव जाणवो. हवे ए बे स्वभाव जो द्रव्यमां न मानियें तो शो दोष थाय ? ते कहे छे. जो द्रव्यने विषे भव्यपणो न मानियें तो द्रव्यना जे विशेष गुण गतिसहकार, स्थितिसहकार, अवगाह दान, ज्ञायकता, वर्णादि जे पंचास्तिकायना विशेष गुण तेनी प्रवृत्ति न थाय, अने प्रवृत्ति विना कार्यनो करवो न थाय अने कार्यने अणकरवे द्रव्यनो व्यर्थपणो थाय, ते माटे भव्य स्वभाव छे. जो द्रव्यने विषे अभवनरूप अभव्य स्वभाव न होय अने एकलो भवन स्वभावज होय तो नवा नवापणे थवे ते द्रव्य पलटीने अन्य द्रव्य थयी जाय ते माटे द्रव्यत्व सत्य ६२ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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