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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. पणो तेथी अतिरिक्त के० बीजी वृति जे गुणनी प्रवृत्यंतरनी अवस्थाने प्रकाश थवे करीने जे भवनपणो थाय एटले ठेरी जे भवनवृत्ति ते सव्यापार छे पण निर्व्यापार नथी.. अस्ति ए वचने निर्व्यापार आत्मशक्ति छे ते कहिये छैयें. ते पण भवनवृत्तिथी उदासीन छे एटले भवनवृत्तिने ग्रहण करती नथी. अस्ति शब्दने निपातपणो छे, विपरिणमते ए वचने तिरोभूत के० अणप्रगटी जे वस्तु तेमां तद्रूपपणे अनुच्छिन्न के० विच्छेद गई. तथा वृत्तिकस्य के० ते रीतें वर्तति आत्मशक्ति तेनो रूपांतरे थवो ते भवन कहि ये. तिहां दृष्टांत जेम क्षीर ते दूध दधिभावें परिणमे, विकारांतरे थवो ते रीतें रहे ए भवनधर्म कहिये. जे ज्ञानादिपर्यायमां अनंतज्ञेय जाणवानी शक्ति छे पण जे ज्ञेय जे रीतें परिणमे ते रीतें ज्ञानगुण प्रवर्ते ए ज्ञानगुणनुं प्रवर्तन ते प्रतिसमयें विपरिणामपणे परिणमन छे. ए पण भवन धर्म छे. वली वृत्यंतरवर्तने अन्यपणे व्यक्तिने हेतु करणे जे भवांतरे वर्तवो ते विपरिणाम कहिये. तथा वली वर्द्धते के० वधे ए वचने उपचयरूपपणे प्रवर्ते जेम अंकुर वधे छे तेम वर्णादिक पुद्गलना गुण उपचयपणे वधे ए ऊपचयरूप भवनता वृत्ति व्यज्यते के० प्रगट करियें छैयें. ___एम गुणने कार्यातरपणे परिणमने द्रव्यमां भवन धर्म छे " अपक्षीयते " ए वचने करीने तु के० वली तेहिज परिणामनो ऊणो थवो अथवा टलवो कहिये, दुर्बल थता पुरुषनी परे, जेम पुरुष दुर्बल थाय तेम पर्यायने घटवे द्रव्य प्रमाणादिक तथा ते समय अगुरुलघु पर्याय घटवे ते दुर्बल थर्बु ते रूप जे भवन वृत्तिने अंतरे व्यक्ति के० प्रगटता कहि छे 'तथा विनश्यति । एम कहेवाथी आविर्भूत के० प्रगट थयो For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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