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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. तत्र जीवः स्वधर्म ज्ञानादिभिः अस्तित्वेन वर्तमान तेन स्यात् अस्तिरूपः प्रथमभङ्गः अत्र स्वधर्मा अ. स्तिपदगृहीताः शेषानास्तित्वादयो धर्माः अवक्तव्य धर्माश्च स्यात्पदेन संगृहीताः अर्थ ॥ हवे स्वरूपपणे सप्तभंगी कहे छे, जे एक द्रव्यने विषे अथवा एक गुणने विषे, एक पर्यायने विषे, एक स्वभावने विषे सातसात भांगा सदा परिणमे छे, ते रीतें सप्तभंगी कहे छे.स्याद्वादरत्नाकरावतारिका मध्ये कह्यो छे “एकस्मिन् जीवादौ अनंतधर्मापेक्षासप्तभंगीनामानंत्यं” ए वचनथी जाणी लेजो. अत्थिजीवे इत्यादि गाथायी जाणजो, ए सुयगडांग सूत्रे छे. हवे पहेलो भांगो लखि ये छैयें, तिहां जीव द्रव्य पोताने स्वद्रव्य पिंडगुणपर्याय समुदाय आधारपणो, स्वक्षेत्र असंख्य प्रदेश ज्ञानादि गुणर्नु अवस्थान, अगुरुलघुता हानि वृद्धिनो मान अने स्वकाल ते गुणनी वर्त्तना उत्पादव्ययनी परिणमननो भिन्न स्वभाव तथा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत वीर्य, अनंत अव्याबाध, अरूपी,अशरीरी, परम क्षमा, परम मार्दव, परम आर्जव, स्वरूपभोगी प्रमुख स्वस्वभाव ए अनंतज्ञेय ज्ञायकपणे जीव द्रव्य छतो छे. एम जीवनो ज्ञानगुण सधर्म सकल ज्ञेयज्ञायकपणो स्वशक्तिधर्म अनंत अविभागे एकएक पर्याय अविभागमा सर्व अमिलाप्य अनमिलाप्य स्वभावनो जाणगपणो छे. इहां विस्तारें लखियें छैयें, तिहां मतिज्ञानना पर्याय जूदा छे. श्रुतज्ञानना अविभाग जूदा छे. मनःपर्याय ज्ञानना अविभाग जूदा छे. केवल ज्ञानना पर्याय जूदा छे. श्रीविशेषावश्यकें मणधरवा For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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