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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. अछता पण कहेवाय, तेवारे स्व पर्यायनो छतापणो पर पर्यायनो अछतापणो ए बे धर्म समकाले छे पण एक समय कहेवाय नही ते माटे ए घटादि द्रव्य ते स्व द्रव्यमां स्वपर्यायनो सत्वपणो, परपर्यायनो असत्वपणो, ते कोइ पण एक सांकेतिक शब्दं करी कहेवाने समर्थ नही माटे सत्व अस्तिपणो असत्व नास्तिपणो ते एक समये कहेवामां असमर्थ छे तेथी वस्तु स्वभावना बे धर्म ते एक समयें छता छे तेनो ज्ञान करवा माटे स्यात् अवक्तव्य ए वचन बोल्या. केमके कोइकने एवो बोध थाय जे सर्वथी वचने अगोचरज छे ते माटे स्यात्पद दीधो स्यात् के० कथंचित्पणे कोइक रीतें एक समये न कहेवाय माटे स्यात् अवक्तव्य ए जीव छे. एम सर्व द्रव्य जाणवा. ए बीजो भांगो थयो. ए त्रण भंगा सकलादेशी छे. सर्व वस्तुने संपूर्णपणे ग्रहेवा रूप छे. जीवादिक जे वस्तु तेने संपूर्ण ग्रहेवावंत छे. अथ चत्वारो विकलादेशाः तत्र एकस्मिन् देशे स्वपर्यायसत्वेन अन्यत्र तु परपर्यायसत्वेन संश्व असंश्च भवति घटोऽघटश्च एवं जीवोऽपि स्वपर्यायैः सन् परपर्यायैः असन् इति चतुर्थो भङ्गः अर्थ ॥ हवे चार भांगा विकलादेशी कहे छे जे वस्तुनुं स्वरूप कहेवो तेना एक देशनेज ग्रहे ए स्वरूप छे तिहां एक देशने विषे स्वपर्यायनो सत्वपणो अस्तिपणो गवेषे छे ते वारे वस्तु सद् असत्पणे के एटले ए घट छे अने ए घट नथी एम जीव पण स्वपर्यायें सत् परपर्याय असत् ते माटे एक समये आस्ति नास्ति रूप छे, पण कहेवामां असंख्यात समय For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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