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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणठाणाअधिकार. १०१९ पोताना आत्माने तथा अन्य संसारी जीवने सिण (स्नेह) सरागता, परिग्रहता हिंसादिकनो हेतु थाये तिणे गुणीनी भक्ति जोडतो निरधिकरणी थाये ते माटे जे अरिहंतनी भक्ति कारजे कों जे धनादिक ते देवको कहिये ते जे खायो होवे अथवा पोते विणसाड्यो होवे अथवा उवेख्यो होवे ते सर्व देवकाना दूषण थयो ते माटे देवका दोषनी आलोषणा करवी ते लखीये छे जे माह्यरे जीवे एकेंद्री पृथवीकायपणे जिनबिंबादिकनी आसातना करी अथवा पृथवीकायपणे मूक्या जे शरीर तेहथी जे गुणी अथवा गुणीनी थापना चैत्यादिक तेहने व्याघात थयो तथा अपकायपणे पाणिमे चैत्य वहराव्या पड्या जिन बिंब वहाव्या तथा अग्निकायपणे जे चैत्यबिंबादिक बाल्या होवे, तथा वायुकायपणे चैत्य पड्यो होवे तथा वनस्पतिकायपणे जे चैत्य मध्ये रुखडा झाड खापणे उगीने चैत्य पड्या होवे, त्रसकायपणे चैत्यमध्ये मालादिक करी रह्या हवे पंखीने भवे चैत्य तथा जिनबिंब उपर बेसी असमंजस आचरण करयां होवे, तथा देवकाव्य मनुष्यपणे जाणि तथा जाण्या विना खाधा होवे अथवा अवधि वावर्या होवे तथा देवका उपर अन्याय हुंकम कर्या होवे, अथवा देवकी वस्तु वावरीने पोताना यश बोलाव्या होवे, देवका दोकडा व्याजे राखे थोडो व्याज भरी आप्यो होवे अने घणो लाभ लीयो होवे, तथा बीजो पण देवथी इंद्री सुख यशवडाई प्रमुख जे करी होवे तथा अरिहंत देव प्रते सांसारिक कामे मान्या ईछा होवे ते मने वचने कायाए करी मिछामिदुक्कडं. हिवे माहारे ए कार्य अशुद्धाचरणरूप न करवू आज पछी माहारो आत्मा अनंतगुणमयी प्रगट करवानी रुचि करवी श्रीअरिहंतनो को मार्ग तहत्त करी सद्दहवो, For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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