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________________ जगती लक्षणम् क्षीरार्णव अ० १००-क्रमांक अ० २ श्री विश्वकर्मा उवाच-- अथातः संप्रवक्ष्यामि जगती लक्षणं रिपि प्रासादो लिङ्गमित्युक्तं जगती पीट भेवच ॥१॥ सा चा मुढ दिशा भागा मनोज्ञा सर्वत: प्लया प्रतिहारी देवकुलं विभागा नामतः परे ॥२॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે કે હું ત્રાષિરાજ, હવે હું તમને પ્રાસાદની જગતીનાં લક્ષણ કહું છું. પ્રસાદ શિવલિંગ રૂપ છે. અને જગતી પીઠ જળાધારી રૂપ ભણુંવી. તે દિમૂઢ ન હોય તેવી દિશાવિભાગમાં અને મને આનંદ આપનારી અને ઉપરથી સર્વ તરફ પાણીના ઢાળવાળી તેવી જગતી શુભ જાણે. તેમાં દેવના પ્રતિહારે અને દેવકુળનાં સ્વરૂપે કરવાં. તેના વિભાગ પરથી (૬) નામો કહ્યાં छ. १-२ श्री विश्वकर्मा कहते हैं-हे ऋषिराज, अब मैं आपको जगतीके लक्षण बताता हूँ। प्रासाद शिवलिङ्ग स्वरूप है । और जगती पीठ-जजधारी रूप है । वह दिङ्मूढ न हो वैसी दिशाके विभागमें और मनोरंजनी और उपरसे सर्व बाजुमें जलके ढालवाली जगतीको शुभ समझना । उसमें देवके प्रतिहारों और देवकुलके स्वरूपकरना । उसके विभाग परसे (६४) नाम कहे हैं । १-२. 'प्रासादस्यानुमानेन जगति विस्तरो भवेत् प्रथमा षद्गुणा प्रोक्ता द्वितीयां च चतुर्गुणा ॥३॥ तृतीया द्विगुणाख्याता पंचगुणा थवा भवेत् पृथमा कनिष्ठा प्रोक्ता द्वितीया चैव मध्यमा ॥४॥ तृतीया ज्येष्ठ भित्युक्ता चतुर्था सर्वगा भवेत् ज्ञातव्या क्रमयोगेन सर्वशिल्पि विशारदः ॥५॥ (१) इससे मिलते जुलते पाठ ज्ञानरत्न कोशके प्राचीन शिल्प ग्रंथमें दिये हुए हैं । जगतीका अर्थ सामान्यतया प्रासादकी चारों ओरका ओटा, दूसरे अर्थमें प्रासादकी सीमा-मर्यादा अर्थात् उतने विस्तारमें उस प्रासादका दुर्ग ऐसा किया जाता है। ऐसा द्राविड शिल्पमें विशेष है । सांधार प्रासादमें सीमा मर्यादा, दुर्ग-किला ऐसा मेरा नम्र अभिप्राय है। निरेधार प्रासादके
SR No.008421
Book TitleKshirarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year
Total Pages416
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size13 MB
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