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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] जीव-अधिकार [शार्दूलविक्रीडित] भूतं भान्तमभूतमेव रभसा निर्भिद्य बन्धं सुधीर्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्। आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते धुवं नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देव: स्वयं शाश्वतः।।१२।। [रोला] अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत्। मान के कर्मबन्ध से भिन्न लखे बुध ।। तो निज अनुभवगम्य आतमा सदा विराजित। विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ।।१२।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''अयम् आत्मा व्यक्तः आस्ते'' [अयम्] इस प्रकार [आत्मा] चेतनालक्षण जीव [व्यक्त:] स्वस्वभावरूप [आस्ते] होता है। कैसा होता है ? "नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलः'' [नित्यं] त्रिकालगोचर [कर्म] अशुद्धतारूप [कलङ्कपङ्क ] कलुषताकीचड़से [ विकलः] सर्वथा भिन्न होता है। और कैसा है ? "ध्रुवं '' चार गतिमें भ्रमता हुआ रह [रुक] गया। और कैसा है ? "देवः'' त्रेलोक्यसे पूज्य है। और कैसा है ? "स्वयं शाश्वत:'' द्रव्यरूप विद्यमान ही है। और कैसा होता है ? ''आत्मानुभवैकगम्यमहिमा'' [आत्मा] चेतन वस्तुके [अनुभव ] प्रत्यक्ष- आस्वादके द्वारा [ एक ] अद्वितीय [ गम्य ] गोचर है [ महिमा] बड़ाई जिसकी ऐसा है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवका जिस प्रकार एक ज्ञानगुण है उसी प्रकार एक अतीन्द्रिय सुखगुण है सो सुखगुण संसार अवस्थामें अशुद्धपनेसे प्रगट आस्वादरूप नहीं है। अशुद्धपनाके जानेपर प्रगट होता है। वह सुख अतीन्द्रिय परमात्माके होता है। उस सुखको कहने लिये कोई दृष्टान्त चारों गतियोंमे नहीं है, क्योंकि चारों ही गतियाँ दुःखरूप है, इसलिए ऐसा कहा कि जिसको शुद्धस्वरूपका अनुभव है सो जीव परमात्मारूप जीवके सुखको जानने के योग्य है। क्योंकि शुद्धस्वरूप अनुभवनेपर अतीन्द्रिय सुख है- ऐसा भाव सूचित किया है। कोई प्रश्न करता है कि कैसा कारण करनेसे जीव शुद्ध होता है ? उत्तर इस प्रकार है कि शुद्धका अनुभव करनेसे जीव शुद्ध होता है। "किल यदि कोऽपि सुधी: अन्तः कलयति'' [किल ] निश्चयसे [यदि] जो [ कोऽपि] कोई जीव [अन्तः कलयति] शुद्धस्वरूपको निरन्तर अनुभवता है। कैसा है जीव ? [ सुधीः ] शुद्ध है बुद्धि जिसकी। क्या करके अनुभवता है ? ''रभसा बन्धं निर्भिद्य'' [ रभसा] उसीकाल [बन्धं] द्रव्यपिंडरूप मिथ्यात्वकर्मके [ निर्भिद्य] उदयनको मेट करके अथवा मूलसे सत्ता मेट करके, तथा "हठात् मोहं व्याहत्य'' [ हठात् ] बलसे [ मोहं] मिथ्यात्वरूप जीवके परिणामको [ व्याहत्य] समूल नाश करके। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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