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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार-कलश [ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द खंडान्वय सहित अर्थ:- "जगत् तमेव स्वभावम् सम्यक् अनुभवतु'' [ जगत्] सर्व जीवराशि [तम् एव] निश्चयसे पूर्वोक्त [ स्वभावम्] शुद्ध जीववस्तुको [ सम्यक् ] जैसी है वैसी [अनुभवतु] प्रत्यक्षपनेसे स्वसंवेदनरूप आस्वादो। कैसी होकर आस्वादे ? ''अपगतमोहीभूय'' [अपगत] चली गई है [ मोहीभूय] शरीरादि परद्रव्य सम्बन्धी एकत्वबुद्धि जिसकी ऐसी होकर। भावार्थ इस प्रकार है कि संसारी जीवको संसारमें बसते हुए अनंतकाल गया। शरीरादि परद्रव्य-स्वभाव था, परंतु यह जीव अपना ही जानकर प्रवृत्तहुआ, सो जभी यह विपरीत बुद्धि छूटती है तभी यह जीव शुद्धस्वरूपका अनुभव करनेके योग्य होता है। कैसा है शुद्धस्वरूप? "समन्तात् द्योतमानं'' [समन्तात् ] सब प्रकार से [ द्योतमानं] प्रकाशमान है। भावार्थ इस प्रकार है कि अनुभवगोचर होनेपर कुछ भ्रान्ति नहीं रहती। यहाँ पर कोई प्रश्न करता है कि जीवको तो शुद्धस्वरूप कहा और वह ऐसा ही है, परंतु राग-द्वेष-मोहरूप परिणामोंको अथवा सुख-दुःख आदिरूप परिणामोंको कौन करता है, कौन भोगता है ? उत्तर इस प्रकार है कि इन परिणामोंको करे तो जीव करता है और जीव भोगता है परंतु यह परिणति विभावरूप है, उपाधिरूप है। इस कारण निजस्वरूप विचारनेपर यह जीवका स्वरूप नहीं है ऐसा कहा जाता है। कैसा है शुद्धस्वरूप ? ''यत्र अमी बद्धस्पृष्टभावादयः प्रतिष्ठां न हि विदधति'' [ यत्र] जिस शुद्धात्मस्वरूपमें [अमी] विद्यमान [बद्ध] अशुद्ध रागादिभाव, [ स्पृष्ट ] परस्पर पिंडरूप एकक्षेत्रावगाह और [ भावादयः ] आदि शब्दसे गृहित अन्यभाव, अनियतभाव, विशेषभाव और संयुक्तभाव इत्यादि जो विभावपरिणाम हैं वे समस्त भाव शुद्धस्वरूपमें [प्रतिष्ठां] शोभाको [ न हि विदधति] नहीं धारण करते हैं। नर, नारक, तिर्यंच और देवपर्यायरूप भावका नाम अन्यभाव है। असंख्यात प्रदेशसंबंधी संकोच और विस्ताररूप परिणमनका नाम अनियतभाव है। दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप भेदकथनका नाम विशेषभाव है तथा रागादि उपाधि सहितका नाम संयुक्तभाव है। भावार्थ इस प्रकार है कि बद्ध , स्पृष्ट, अन्य, अनियत, विशेष और संयुक्त ऐसे जो छह विभाव परिणाम हैं वे समस्त संसार अवस्थायुक्त जीवके हैं, शुद्ध जीवस्वरूपका अनुभव करनेपर जीवके नहीं हैं। कैसे हैं बद्ध-स्पृष्ट आदि विभावभाव ? "स्फुटं" प्रगटरूपसे "एत्य अपि'' उत्पन्न होते हुए विद्यमान ही हैं तथापि “उपरि तरन्तः''उपर ही उपर रहते हैं। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवका ज्ञानगुण त्रिकालगोचर है उस प्रकार रागादि विभावभाव जीववस्तुमें त्रिकालगोचर नहीं हैं। यद्यपि संसार अवस्थामें विद्यमान ही है तथापि मोक्ष अवस्थामें सर्वथा नहीं है, इसलिए ऐसा निश्चय है कि रागादि जीवस्वरूप नहीं है।। ११ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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