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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates _ 'कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसी आशंका करेगा कि जीव द्रव्य ज्ञायक है, समस्त ज्ञेय को जानता है, इसलिये परद्रव्यको जानते हुए कुछ थोड़ा बहुत रागादि अशुद्ध परिणति का विकार होता होगा ? उत्तर इसप्रकार है कि परद्रव्य को जानते हुए तो एक निरंश मात्र भी नहीं है, अपनी विभाव परिणति करने से विकार है। अपनी शुद्ध परिणति होने पर निर्विकार है।' इत्यादि रूपसे अनेक तथ्यों का अनुभव पूर्ण वाणी द्वारा स्पष्टीकरण इस टीका में किया गया गया है। टीका का स्वाध्याय करने से ज्ञात होता है कि आत्मानुभूति पूर्वक निराकुलत्व लक्षण सुख का रसास्वादन करते हुए कविवर ने यह टीका लिखी है। यह जितनी सुगम और सरल भाषा में लिखी गई है उतनी ही भव्य जनों के चित्तको आल्हाद उत्पन्न करने वाली है। कविवर बनारसी दास जी ने इसे बालबोध टीका इस नाम से सन्मुख करने के अभिप्राय से लिखी गई है। इसलिये इसका बालबोध यह नाम सार्थक है। कविवर राजमल्लजी और इस टीका के सम्बन्ध में बनारसीदास जी लिखते हैं---- पांडे राजमल्ल जिन धर्मी। समयसार नाटक के मर्मी ।। तिन्हें ग्रंथ की टीका कीन्ही। बालबोध सुगम करि दीन्ही ।। इस विधि बोध वचनिका फैली। समै पाइ अध्यातम सैली ।। प्रगटी जगत माहीं जिनवाणी। घर घर नाटक कथा बखानी ।। कवि बनारसीदास जी ने कविवर राजमल्ल जी और उनकी इस टीका के सम्बन्ध में थोड़े शब्दों में जो कुछ कहना था, सब कुछ कह दिया है। कविवर बनारसीदास जी ने छन्दों में नाटक समयसार की रचना इसी टीका के आधार से की है। अपने इस भाव को व्यक्त करते हुए कविवर स्वयं लिखते हैं---- नाटक समयसार हितजी का , सुगम राजमल टीका । कवितबद्ध रचना जो होई, भाषा ग्रंथ पढ़े सब कोई ।। तब बनारसी मन में आनी, कीजे तो प्रगटे जिनवाणी । पंच पुरुसकी आज्ञा लीनी। कवितबन्ध की रचना कीनी ।। जिन पांच पुरुषोंको साक्षी करके कविवर बनारसीदास जी ने छन्दों में नाटक समयसारकी रचना की है। वे हैं-१. पं. रूपचंदजी, २. चतुर्भुज जी, ३. कविवर भैया भगवती दास जी, ४. कोरपाल जी और ५. धर्मदास जी। इनमें पं. रूपचंद जी और भैया भगवती दास जी का विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्पष्ट है कि इन पाँचों विद्वानों ने कविवर बनारसी दास जी के साथ मिल कर कविवर राजमल्ल जी की समयसार कलश बाल बोध टीका का अनेक बार स्वाध्याय किया होगा। यह टीका अध्यात्म के प्रचार में काफी सहायक हुई यह इसी से स्पष्ट है। पं. श्री रूपचंद जी जैसे सिद्धान्ती विद्वान्को यह टीका अक्षरशः मान्य थी यह भी इससे सिद्ध होता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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