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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार २११ ___ खंडान्वय सहित अर्थ:- "यत् आत्मनः इह आत्मनि सन्धारणम्'' [ यत् ] जो [आत्मनः] अपने जीवका [इह आत्मनि] अपने स्वरूपमें [सन्धारणम् ] स्थिर होना है "तत्'' एतावन्मात्र समस्त, "उन्मोच्यम् उन्मुक्तम्' 'जितना हेयरूपसे छोड़ना था सो छूटा। "अशेषतः'' कुछ छोड़नेके लिए बाकी नहीं रहा। "तथा तत् आदेयम् अशेषतः आत्तम्'' [ तथा] उसी प्रकार [ तत् आदेयम् ] जो कुछ ग्रहण करने के लिए था [ अशेषतः आत्तम् ] सो समस्त ग्रहण किया। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध स्वरूपका अनुभव सर्व कार्यसिद्धि। कैसा है आत्मा ? ''संहृतसर्वशक्तेः'' [ संहृत] विभावरूप परिणमे थे वे ही हुए हैं स्वभावरूप ऐसे हैं [ सर्वशक्ते:] अनन्त गुण जिसके, ऐसा है। और कैसा है ? ""पूर्णस्य '' जैसा था वैसा प्रगट हुआ।। ४४-२३६ ।। [अनुष्टुप] व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम्। कथमाहारकं तत्स्यायेन देहोऽस्य शक्यते।। ४५-२३७।।* [सोरठा] ज्ञान स्वभावी जीव, परद्रव्यों से भिन्न ही। कैसे कहे सदेह जब आहारक ही नहीं।।२३७।। श्लोकार्थ:- “एवं'' इस प्रकार [पूर्वोक्त रीतिसे] 'ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम्'' ज्ञान पर द्रव्यसे प्रथक अवस्थित [-निश्चळ रहा हुआ] है; "तत्'' वह [ज्ञान] "आहारकं'' आहारक [अर्थात् कर्म-नोकर्मरूप आहार करनेवाला] ''कथम् स्यात्'' कैसे हो सकता है "येन'' कि जिससे ''अस्य देह: शङ्कयते'' उसके देहकी शंका की जा सके ? [ ज्ञानके देह हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके कर्म-नोकर्मरूप आहार ही नहीं है ] ।। ४५-२३७ ।। [अनुष्टुप] एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते। ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिङ्गं मोक्षकारणम्।। ४६-२३८।। [सोरठा] शुद्धज्ञानमय जीव, के जब देह नहीं कही। तब फिर यह द्रव लिंग, शिवमग कैसे हो सके।।२३८ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "ततः देहमयं लिङ्गं ज्ञातु: मोक्षकारणम् न'' [ततः] तिस कारणसे [ देहमयं लिङ्गं ] द्रव्यक्रियारूप यतिपना अथवा गृहस्थपना [ ज्ञातुः] जीवके [ मोक्षकारणम् न ] सकल कर्मक्षयलक्षण मोक्षका कारण तो नहीं है। * पं. श्री राजमलजी कृत टीकामें यह श्लोक छूट गया है। अतः उक्त श्लोक अर्थ सहित, हिन्दी समयसार के आधार से यहाँ दिया गया है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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