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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान - अधिकार [ शार्दूलविक्रीडित ] माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः कहान जैन शास्त्रमाला ] कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधाद्धः । ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ।। १३-२०५ ।। [ रोला ] अरे जैन होकर भी सांख्यों के समान ही, इस आतम को सदा अकर्त्ता तुम मत जानो । भेदज्ञान के पूर्व राग का कर्त्ता आतम, भेदज्ञान होनेपर सदा अकर्त्ता जानो ।।२०५।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ऐसा कहा था कि स्याद्वाद स्वरूपके द्वारा जीवका स्वरूप कहेंगे। उसका उत्तर है— ‘“ अमी आर्हताः अपि पुरुषं अकर्तारम् मा स्पृशन्तु '' [ अमी ] विद्यमान जो [ आर्हताः अपि ] जैनोक्त स्याद्वाद स्वरूपको अंगीकार करते हैं ऐसे जो सम्यग्दृष्टि जीव वे भी [पुरुषं] जीवद्रव्यको [ अकर्तारम् ] रागादि अशुद्ध परिणामोंका सर्वथा कर्ता नहीं है ऐसा [ मा स्पृशन्तु ] मत अंगीकार करो । किनके समान ?' सांख्या: इव जिस प्रकार सांख्यमतवाले जीवको सर्वथा अकर्ता मानते हैं उसी प्रकार जैन भी सर्वथा अकर्ता मत मानो । जैसा मानने योग्य हैं वैसा कहते हैं——— सदा तं भेदावबोधात् अधः कर्तारं किल कलयन्तु तु ऊर्ध्वं एनं च्युतकर्तृभावम् पश्यन्तु '' [सदा] सर्व काल द्रव्यका स्वरूप ऐसा है कि [ तं ] जीवद्रव्यको [ भेदावबोधात् अधः ] शुद्धस्वरूपपरिणमनरूप सम्यक्त्वसे भ्रष्ट मिथ्यादृष्टि होता हुआ मोह राग द्वेषरूप परिणमता है उतने काल [ कर्तारं किल कलयन्तु ] मोह राग द्वेषरूप अशुद्ध चेतनपरिणामका कर्ता जीव है ऐसा अवश्य मानोप्रतीति करो। [तु] वही जीव [ ऊर्ध्वं ] जब मिथ्यात्वपरिणाम छूटकर अपने शुद्धस्वरूप सम्यक्त्वभावरूप परिणमता है तब [ एनं च्युतकर्तृभावम् ] छोड़ा है रागादि अशुद्ध भावोंका कर्तापन जिसने ऐसी [ पश्यन्तु ] श्रद्धा करो - प्रतीति करो - ऐसा अनुभव करो । भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार जीवका ज्ञानगुण स्वभाव है। वह ज्ञानगुण संसार अवस्था अथवा मोक्ष अवस्थामें नहीं छूटता उस प्रकार रागादिपना जीवका स्वभाव नहीं है तथापि संसार अवस्थामें जब तक कर्मका संयोग है तब तक मोह राग द्वेषरूप अशुद्धपनेसे विभावरूप जीव परिणमता है और तब तक कर्ता है। जीवके सम्यक्त्वगुणके परिणमनके बाद ऐसा जानना - ' ' उद्धतबोधधामनियतं ' ' [ उद्धत ] सकल ज्ञेय पदार्थको जाननेके लिए उतावले ऐसे [ बोधधाम ] ज्ञानका प्रताप है [ नियतं ] सर्वस्व जिसका ऐसा है। और कैसा है ? '' स्वयं प्रत्यक्षम् '' आपको अपने आप प्रगट हुआ है। और कैसा है ? 'अचलं '' चार गतिके भ्रमणसे रहित हुआ है। और कैसा है ?'' ज्ञातारम्'' ज्ञानमात्र स्वरूप है। और कैसा है?'' परम् एकं " रागादि अशुद्ध परिणतिसे रहित शुद्ध वस्तुमात्र है । । १३ – २०५ ।। .. 5 १८३ Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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