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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १३६ समयसार-कलश [ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द है भोगक्रिया, उसके होते हुए "ज्ञानी किं कुरुते' [ ज्ञानी] सम्यग्दृष्टि जीव [किं कुरुते] अनिच्छक होकर कर्मके उदयमें क्रिया करता है तो क्रियाका कर्ता हुआ क्या ? ''अथ न कुरुते" सर्वथा क्रियाका कर्ता सम्यग्दृष्टि जीव नहीं है। किसका कर्ता नहीं है ? "कर्मइति'' भोगक्रियाका। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? "जानाति कः'' ज्ञायक - स्वरूपमात्र है। तथा कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? "अकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितः'' निश्चल परम ज्ञानस्वभावमें स्थित है।। २१-१५३।। [शार्दूलविक्रीडित] सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमन्ते परं यद्वजेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि। सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्कां विहाय स्वयं जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि।। २२-१५४ ।। [हरिगीत] वज का हो पात जो त्रैलोक्य को विह्वल करे। फिर भी अरे अति साहसी सददृष्टिजन निश्चल रहें।। निश्चल रहें निर्भय रहें निशंक निज में ही रहें। निसर्ग ही निजबोधवपु निज बोध से अच्युत रहें।।१५४ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''सम्यग्दृष्टयः एव इदं साहसम् कर्तुं क्षमन्ते'' [सम्यग्दृष्टयः ] स्वभावगुणरूप परिणमी है जो जीवराशि वह [ एव] निश्चयसे [इदं साहसम्] ऐसा धीरपना [ कर्तुं] करने के लिए [क्षमन्ते] समर्थ होती है। कैसा है साहस ? ""परं'' सबसे उत्कृष्ट है। कौन साहस ? "यत् वजे पतति अपि अमी बोधात् न हि च्यवन्ते'' [यत् ] जो साहस ऐसा है कि [ वजे पतति अपि] महान वज्रके गिरनेपर भी [अमी] सम्यग्दृष्टि जीवराशि [बोधात्] शुद्धस्वरूपके अनुभवसे [न हि च्यवन्ते] सहज गुणसे स्खलित नहीं होती है। भावार्थ इस प्रकार है – कोई अज्ञानी ऐसा मानेगा कि सम्यग्दृष्टि जीवके साताकर्मके उदय अनेक प्रकार इष्ट भोगसामग्री होती है, असाताकर्मके उदय अनेक प्रकार रोग, शोक, दारिद्र, परीषह, उपसर्ग इत्यादि अनिष्ट सामग्री होती है, उसको भोगते हुए शुद्धस्वरूप अनुभवसे चूकता होगा। उसका समाधान इस प्रकार है कि अनुभवसे नहीं चूकता है, जैसा अनुभव है वैसा ही रहता है, वस्तुका ऐसा ही स्वरूप है। कैसा है वज्र ? "भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि'' [भय] वज्र के गिरनेपर उसके त्राससे [चलत् ] चलायमान ऐसी जो [ त्रैलोक्य ] सर्व संसारी जीवराशि, उसके द्वारा [ मुक्त ] छोड़ी गई है [अध्वनि] अपनी अपनी क्रिया जिसके गिरनेपर, ऐसा है वज्र। भावार्थ इस प्रकार है - ऐसा है उपसर्ग परीषह जिनके होनेपर मिथ्यादृष्टिको ज्ञानकी सुध नहीं रहती है। कैसे हैं सम्यग्दृष्टि जीव ? 'स्वं जानन्तः'' [ स्वं] शुद्ध चिद्रूपको [जानन्तः] प्रत्यक्षरूपसे अनुभवते है। कैसा है स्व ? "अवध्यबोधवपुष'' [ अवध्य] शाश्वत जो [ बोध ] ज्ञानगुण, वह है [ वपुष ] शरीर जिसका, ऐसा है। क्या करके ? 'सर्वाम् एव शङ्कां विहाय'' [ सर्वाम् एव ] सात प्रकारके । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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