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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] निर्जरा-अधिकार १३५ उसको [ स्वफलेन ] जिस प्रकार राजाकी सेवा करते हुए द्रव्यकी प्राप्ति, भूमिकी प्राप्ति, जैसे खेती करते हुए अन्नकी प्राप्ति [ बलात् योजयेत् ] अवश्यकर कर्ता पुरुषका क्रियाके फलके साथ संयोग होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जो क्रियाको नहीं करता उसको क्रियाके फलकी प्राप्ति नहीं होती। उसी तरह सम्यग्दृष्टि जीवको बंध नहीं होता, निर्जरा होती है। कारण कि सम्यग्दृष्टि जीव भोगसामग्री क्रियाका कर्ता नहीं है, इसलिए क्रियाका फल नहीं है कर्मकाबन्ध, वह तो सम्यग्दृष्टिके नहीं है। दृष्टान्तसे दृढ़ करते है- “यत् कुर्वाणः फललिप्सुः ना एव हि कर्मणः फलं प्राप्नोति'' [ यत्] जिस कारणसे पूर्वोक्त नाना प्रकारकी क्रिया [ कुर्वाण:] कोई करता हुआ [ फललिप्सुः] फलकी अभिलाषा करके क्रियाको करता है ऐसा [ ना] कोई पुरुष [कर्मणः फलं] क्रियाके फलको [प्राप्नोति] प्राप्त होता है। भावार्थ इस प्रकार है - जो कोई पुरुष क्रिया करता है, निरभिलाष होकर करता है, उसको तो क्रियाका फल नहीं है।। २०–१५२ ।। [शार्दूलविक्रीडित] त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किन्त्वस्यापि कुतोऽपि किञ्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत्। तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः।। २१-१५३।। [हरिगीत] जिसे फल की चाह ना वह करे- यह जंचता नहीं। यदि विवशता वश आ पड़े तो बात ही कुछ और है।। अकंप ज्ञान स्वभाव में थिर रहें जो वे ज्ञानीजन । सब कर्म करते या नहीं-यह कौन जाने विज्ञजन।।१५३ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "येन फलं त्यक्तं स कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः'' [येन] जिस सम्यग्दृष्टि जीवने [ फलं त्यक्तं ] कर्मके उदयसे है जो भोगसामग्री उसका [ फलं] अभिलाष [त्यक्तं ] सर्वथा ममत्व छोड़ दिया है [ सः] वह सम्यग्दृष्टि जीव [ कर्म कुरुते] ज्ञानावरणादि कर्मको करता है [इति वयं न प्रतीम:] ऐसी तो हम प्रतीति नहीं करते। भावार्थ इस प्रकार है कि जो कर्मके उदयके प्रति उदासीन है उसे कर्मका बन्ध नहीं है, निर्जरा है। “किन्तु' कुछ विशेष-'अस्य अपि'' इस सम्यग्दृष्टिके भी "अवशेन कुतः अपि किञ्चित् अपि कर्म आपतेत्'' [अवशेन] बिना ही अभिलाष किये बलात्कार ही [कुतः अपि किञ्चित् अपि कर्म] पहले ही बाँधा था जो ज्ञानावरणादि कर्म, उसके उदयसे हुई है जो पंचेन्द्रिय विषय भोगक्रिया वह [ आपतेत्] प्राप्त होती है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार किसी को रोग, शोक, दारिद्र बिना ही वांछाके होता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवके जो कोई क्रिया होती है सो बिना ही वांछाके होती है। "तस्मिन् आपतिते' अनिच्छक है सम्यग्दृष्टि पुरुष, उसको बलात्कार होती Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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