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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] संवर-अधिकार १११ [ मालिनी] यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते। त्दयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति।। ३-१२७।। [रोला] भेद ज्ञान के इस अविरल धारा प्रवाहसे। कैसे भी कर प्राप्त करे जो शुद्धातम को।। और निरन्तर उसमें ही थिर होता जावे। पर परिणति को त्याग निरन्तर शुद्ध हो जावे।।१२७ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "तत् अयम् आत्मा आत्मानम् शुद्धम् अभ्युपैति''[तत्] तिस कारण [अयम् आत्मा] यह प्रत्यक्ष जीव [आत्मानम्] अपने स्वरूपको [शुद्धम् ] जितने हैं द्रव्यकर्म भावकर्म, उनसे रहित [अभ्युपैति] प्राप्त करता है। कैसा है आत्मा ? "उदयदात्मारामम्' [ उदयत्] प्रगट हुआ है [ आत्मा] अपना द्रव्य, ऐसा है [ आरामम् ] निवास जिसका, ऐसा है। किस कारणसे शुद्धकी प्राप्ति होती है ? "परपरिणतिरोधात्'' [ परपरिणति] अशुद्धपना, उसके [रोधात्] विनाशसे। अशुद्धपनाका विनाश जिस प्रकार होता है उस प्रकार कहते हैं - "यदि आत्मा कथमपि शुद्धम् आत्मानम् उपलभमानः आस्ते'' [ यदि] जो [आत्मा] चेतन द्रव्य [कथमपि] काललब्धिको पाकर सम्यकत्व पर्यायरूप परिणमता हुआ [शुद्धम् ] द्रव्यकर्म, भावकर्मसे रहित ऐसे [आत्मानम् ] अपने स्वरूको [ उपलभमानः आस्ते] आस्वादता हुआ प्रवर्तता है। कैसा करके ? "बोधनेन'' भावश्रुतज्ञान के द्वारा। कैसा है ? "धारावाहिना'' अखंडित धाराप्रवाहरूप निरन्तर प्रवर्तता है। 'ध्रुवम्'' इस बात का निश्चय है।। ३-१२७ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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