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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ११० समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द काललब्धि पाकर कोई आसन्नभव्य जीव सम्यक्त्वरूप स्वभाव परिणति परिणमता है, इससे शुद्ध प्रकाश प्रगट होता है, इससे कर्मका आस्रव मिटता है। इससे शुद्ध ज्ञानका जीतपना घटित होता है।। १–१२५ ।। [शार्दूलविक्रीडित] चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतो: कृत्वा विभाग द्वयोरन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च। भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः।। २-१२६ ।। [हरिगीत] यह ज्ञान है चिद्रूप किन्तु राग तो जड़रूप है। मैं ज्ञानमय आनन्दमय पर राग तो पररूप है ।। इसतरह के अभ्यास से जब भेदज्ञान उदित हुआ। आनन्दमय रसपान से तब मनोभाव मुदित हुआ।।१२६ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "इदं भेदज्ञानम् उदेति'' [इदं ] प्रत्यक्ष ऐसा [भेदज्ञानम् ] जीवके शुद्धस्वरूपका अनुभव [ उदेति] प्रगट होता है। कैसा है ? 'निर्मलम्'' राग, द्वेष, मोहरूप अशुद्ध परिणतिसे रहित है। और कैसा है ? 'शुद्धज्ञानघनौघम्'' [शुद्धज्ञान] शुद्धस्वरूपका ग्राहक ज्ञान, उसका [घन] समूह, उसका [ओघम् ] पुजु है। और कैसा है ? "एकम्'' समस्त भेदविकल्पसे रहित है। भेदज्ञान जिस प्रकार होता है उस प्रकार कहते हैं-"ज्ञानस्य रागस्य च द्वयोः विभागं परतः कृत्वा'' [ ज्ञानस्य] ज्ञानगुणमात्र [ रागस्य ] अशुद्ध परिणति, उन [द्वयोः] दोनोंका [विभागं] भिन्न-भिन्नपना [परतः] एक दूसरे से [ कृत्वा] करके भेदज्ञान प्रगट होता है। कैसे हैं वे दोनों ? " चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतो:'' चैतन्यमात्र जीवका स्वरूप, जडत्वमात्र अशुद्धपनाका स्वरूप। कैसा करके भिन्नपना किया ? ''अन्तर्वारुणदारणेन'' [अन्तर्वारुण] अंतरंग सूक्ष्म अनुभवदृष्टि, ऐसी है [ दारणेन] करोंत, उसके द्वारा। भावार्थ इस प्रकार है -शुद्धज्ञानमात्र तथा रागादि अशुद्धपना ये दोनों भिन्न-भिन्नरूपसे अनुभव करने के लिए अति सूक्ष्म हैं, क्योंकि रागादि अशुद्धपना चेतनसा दिखता है, इसलिए अतिसूक्ष्म दृष्टिसे जिस प्रकार पानी कीचड़ से मिला होनेसे मैला हुआ है तथापि स्वरूपका अनुभव करनेपर स्वच्छतामात्र पानी है, मैला है सो कीचड़की उपाधि है उसी प्रकार रागादि परिणामके कारण ज्ञान अशुद्ध ऐसा दीखता है तथापि ज्ञानपनामात्र ज्ञान है, रागादि अशुद्धपना उपाधि है। “सन्तः अधुना इदं मोदध्वम्'' [ सन्तः] सम्यग्दृष्टि जीव [अधुना] वर्तमान समयमें [इदं मोदध्वम् ] शुद्धज्ञानानुभवको आस्वादो। कैसे है संतपुरुष ? ''अध्यासिताः' शुद्धस्वरूपका अनुभव है जीवन जिनका ऐसे हैं। और कैसे हैं ? "द्वितीयच्युताः'' हेय वस्तुको नहीं अवलम्बते है।। २-१२६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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