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________________ २७० योगसार-प्राभृत अनन्त ज्ञानियों का एक मत होता है। आचार्य कुंदकुंद, उमास्वामी आदि सब आचार्यों ने और सब प्रामाणिक पंड़ितों ने भी सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल कहा है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता को मोक्षमार्ग अर्थात् मोक्ष का उपाय बताया है। वस्तुतः निर्वाणपद एक ही - निर्वाणसंज्ञितं तत्त्वं संसारातीतलक्षणम् । एकमेवावबोद्धव्यं शब्दभेदेऽपि तत्त्वतः ।।४४५।। अन्वय :- संसारातीतलक्षणं निर्वाणसंज्ञितं तत्त्वं शब्दभेदे अपि तत्त्वतः एकं एव अवबोद्धव्यम्। सरलार्थ :- शास्त्र में ज्ञानियों ने अनेक शब्दों द्वारा एक ही मोक्ष तत्त्व को कहा है; तथापि संसार से अतीत इस लक्षण को प्राप्त निर्वाण अर्थात् मोक्षतत्त्व वस्तुतः एक ही है, अनेक नहीं; ऐसा जानना चाहिए। भावार्थ :- निर्वाण/मोक्षपद के अन्य नामों का कथन अगले श्लोक में ग्रंथकार आचार्य स्वयं बता रहे हैं। निर्वाण/मोक्ष के लिए अन्य-अन्य नाम - विमुक्तो निर्वृतः सिद्धः परंब्रह्माभवः शिवः । अन्वर्थः शब्दभेदेऽपि भेदस्तस्य न विद्यते ।।४४६।। अन्वय :- विमुक्तः, निर्वृतः, सिद्धः, परंबा, अभवः (तथा) शिवः अन्वर्थः शब्दभेदे अपि तस्य (अर्थ-) भेदः न विद्यते । ___सरलार्थ :- विमुक्त, निर्वृत, सिद्ध, परब्रह्म, अभव तथा शिव ये सब शब्द अन्वर्थक हैं अर्थात् इन शब्दों का एक निर्वाण/मोक्ष ही अर्थ है, अन्य नहीं । विमुक्त आदि में शब्द-भेद होने पर भी इनमें एक शब्द के वाच्य का दूसरे शब्द के वाच्य के साथ वास्तव में अर्थ-भेद नहीं है अर्थात् निर्वृत आदि शब्द का अर्थ एक मात्र निर्वाण/मोक्ष ही है। भावार्थ :- विमुक्त आदि शब्द का शाब्दिक अर्थ निम्नप्रकार है - १. विमुक्त - क्रोधादि विभाव परिणमन में निमित्तभूत बंधनों से जो विशेषरूप से मुक्त हुए हैं, उन्हें विमुक्त कहते हैं। २. निर्वृत - जो सांसारिक सब प्रवृत्तियों से निर्वृत/अलग हो चुके हैं, उन्हें निर्वृत कहते हैं। ३. सिद्ध - जो स्वात्मोपलब्धिरूप पूर्ण अवस्था को पहुँच गये हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं। ४. परंब्रह्म - जो सब विभावों का अभाव करके अपने शुद्ध चिदानंदमय आत्म-स्वरूप में स्थिर हो गये हैं, उन्हें परब्रह्म कहते हैं। ५. अभव - जिनके मनुष्यादि चारों भवों (गतियों) का अभाव हो चुका है, उन्हें अभव कहते हैं। ६. शिव - जो शिव अर्थात् परम सुख को प्राप्त कर चुके हैं, उन्हें शिव कहते हैं। तीन विशेषणों से विशिष्ट निर्वाणतत्त्व - तल्लक्षणाविसंवादा निराबाधमकल्मषम् । [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/270]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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