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________________ चारित्र अधिकार कार्यकारणतातीतं जन्ममृत्युवियोगतः । । ४४७।। अन्वय :- तत् - लक्षण - अविसंवादा: (निर्वाणतत्त्वस्य लक्षणे अविसंवादा: जिना: ) निराबाधं, अकल्मषं, जन्ममृत्युवियोगत: (च) कार्यकारणातीतं (निर्वाणतत्त्वं) कथयन्ति । सरलार्थ :- निर्वाण / मोक्षतत्त्व के लक्षण को अत्यन्त स्पष्ट एवं यथार्थ जाननेवाले सर्वज्ञ जिनेंद्रदेव मोक्षतत्त्व को निराबाध, अकल्मष और कार्यकारणातीत इन तीन विशेषणों से सहित कहते हैं । भावार्थ :- मोक्षतत्त्व सर्वप्रकार की आकुलतादि बाधाओं से रहित होने के कारण निराबाध है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित होने के कारण अकल्मष (निर्मल) है और जन्म-मरण के कारणों का अभाव होने से कार्य कारणातीत है । वीतरागता से विवाद का अभाव - ज्ञाते निर्वाण - तत्त्वेऽस्मिन्नसंमोहेन तत्त्वतः । मुमुक्षूणां न तद्युक्तौ विवाद उपपद्यते ।।४४८।। अन्वय :- तत्त्वतः असंमोहेन ज्ञाते अस्मिन् निर्वाण -तत्त्वे मुमुक्षूणां तद्युक्तौ विवाद: न उपपद्यते । २७१ सरलार्थ :- मोक्षतत्त्व को असंमोहरूप से अर्थात् वीतरागतापूर्वक यथार्थरूप से जानने पर मुमुक्षुओं को मोक्षसंबंधी युक्तियों के कथन में विवाद अर्थात् मतभेद नहीं हो सकता । भावार्थ :- मोह का अर्थ विपरीत श्रद्धान एवं राग-द्वेषरूप परिणाम है। असंमोह अर्थात् न श्रद्धा की विपरीतता है और न चारित्रगत राग-द्वेषरूप विकारीभाव है। जब साधक इसप्रकार असंमोहरूप से मोक्षतत्त्व को यथार्थ जानता है, तब उसे कोई विवाद नहीं रहता 1 सर्वज्ञता से मोक्षमार्ग में एकरूपता - सर्वज्ञेन यतो दृष्टो मार्गो मुक्तिप्रवेशकः । प्राञ्जलोऽयं ततो भेदः कदाचिन्नात्र विद्यते ।।४४९ ।। अन्वय :- यत: सर्वज्ञेन दृष्टः अयं मुक्तिप्रवेशकः मार्गः प्राञ्जल: ( अस्ति) । तत: अत्र (मोक्षमार्गे) कदाचित् भेदः न विद्यते । सरलार्थ :- क्योंकि केवलज्ञान से देखा अर्थात् जाना गया मुक्तिप्रवेशमार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग प्रांजल अर्थात् स्पष्ट एवं निर्दोष है; इसलिए मोक्षमार्ग के स्वरूप में तथा कथन में कभी कोई मतभेद नहीं होता; इसका अर्थ मोक्षमार्ग में नियम से एकरूपता रहती है। भावार्थ :- मोक्षमार्ग का कथन अनादिकाल से मूलतः तो अनंत ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ तीर्थंकर अरंहतों ने किया है। तदनंतर गणधर एवं अन्य आचार्य मुनिराजों ने किया है। उनके अनुसार ही अनेक विद्वानों ने भी किया है और कर भी रहे हैं; तथापि मोक्षमार्ग के कथन में भेद नहीं है - [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/271]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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