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________________ चारित्र अधिकार २६९ सरलार्थ :- जो कार्य असंमोहपूर्वक अर्थात् वीतरागमय होते हैं, वे कार्य अत्यंत शुद्धि के कारण एवं स्वतः शुद्ध होते हैं; इसलिए भवातीतमार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग पर चलनेवालों को निर्वाण/ मोक्ष सुख के प्रदाता होते हैं। भावार्थ :- असंमोह अर्थात् मोहरहित । मोहरहित परिणाम को वीतराग कहते हैं। जिनेन्द्र देव ने वीतरागता को ही धर्म कहा है। इसलिए असंमोहपूर्वक होनेवाले कार्य को मोक्षप्रदाता कहना आगम तथा युक्ति से प्रमाण है। जो वीतरागता को ही धर्मकार्य में प्रधान ही नहीं सर्वस्व मानता है, वही जिनेन्द्र भगवान का वास्तविक अनुयायी है। मोक्षमार्गारूढ़ जीवों का स्वरूप - भावेषु कर्मजातेषु मनो येषां निरुद्यमम्। भव-भोग-विरक्तास्ते भवातीताध्वगामिनः ।।४४३।। अन्वय :- कर्मजातेषु भावेषु येषां मनः निरुद्यम (अस्ति)। ते भव-भोग-विरक्ताः (साधवः) भवातीताध्वगामिनः (भवन्ति)। सरलार्थ :- कर्मोदय से उत्पन्न परिणामों में तथा कर्मोदय से प्राप्त संयोगी बाह्य पदार्थों में जिन साधक जीवों का मन उद्यम रहित है, वे भव एवं भोगों से विरक्त साधक जीव भवातीतमार्गगामी अर्थात् मोक्षमार्गी हो जाते हैं। भावार्थ :- साधक जीव भले वे श्रावक हो अथवा साधु - वे मोह कर्मोदयजन्य औदयिक परिणामों को अपना स्वरूप नहीं मानते और अघाति कर्मोदय से प्राप्त बाह्य संयोगी पदार्थों को भी अपने स्वरूप में स्वीकारते नहीं है। वे तो स्वयं को अनादि-अनंत ज्ञानानंदस्वभावी ही मानते हैं; इसलिए मोक्षमार्गारूढ़ हो जाते हैं। अतः उनको मोक्षप्राप्ति में देर तो हो सकती है; लेकिन अंधेर बिलकुल नहीं । इन जीवों का दुःखमय संसार में भटकना तो बंद हो गया है, वे मात्र कुछ काल पर्यंत ही संसार में अटके हुए हैं। साधक अनेक, पर साधन एक ही - एक एव सदा तेषां पन्थाः सम्यक्त्वचारिणाम् । व्यक्तीनामिव सामान्यं दशाभेदेऽपि जायते ।।४४४।। अन्वय :- (यथा) व्यक्तीनां दशाभेदे अपि सामान्यं इव सम्यक्त्वचारिणां तेषां पन्थाः सदा एक एव जायते। सरलार्थ :- जिसप्रकार अनेक व्यक्तियों में विशेष अवस्थाओं की अपेक्षा अनेक भेद होने पर भी मनुष्यत्व अथवा जीवत्व की अपेक्षा एकपना ही है। उसीप्रकार मोक्षमार्गी सम्यक्त्व तथा चारित्रवान अनेक जीवों में गति, शरीर, ज्ञान आदि की अपेक्षा से कुछ भेद होने पर भी वीतरागमय मोक्षमार्ग की अपेक्षा कुछ भेद/अंतर नहीं है। उन सबमें वीतरागमय मोक्षमार्गरूप धर्म एक ही है। भावार्थ :- तीन काल में परमार्थ का पंथ एक ही है - ऐसा आगम भी कहता है। इसीलिए [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/269]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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