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________________ १८८ योगसार-प्राभृत जगत के स्वभाव की भावना का प्रयोजन - स्व-तत्त्वरक्तये नित्यं परद्रव्य-विरक्तये। स्वभावो जगतो भाव्यः समस्तमलशुद्धये।।२८४।। अन्वय :- नित्यं स्व-तत्त्वरक्तये, परद्रव्य-विरक्तये, समस्तमलशुद्धये जगतः स्वभावः भाव्यः। सरलार्थ :- अनादि-अनंत निज शुद्ध आत्मतत्त्व में लवलीन होने के लिये, विश्व में विद्यमान जीवादि अनंतानंत द्रव्यों से विरक्त होने की भावना से और अपने आत्मा से संबंधित ज्ञानावरणादि आठों कर्मरूपी मल से रहित होकर शुद्ध होने की इच्छा से जगत के स्वभाव की भावना करना योग्य है। भावार्थ :- तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ७ के १२वें सूत्र में भी जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् - ऐसा कथन आया है। इस सूत्र में जगत के साथ काय अर्थात् शरीर के स्वभाव की भावना की भी बात कही है; लेकिन यहाँ अमितगति आचार्य ने शरीर को गौण किया है। भावना के प्रयोजन में थोडा अंतर है, जैसे तत्त्वार्थसूत्र में संवेग/संसार से भय और वैराग्य - ये दो प्रयोजन बतलाये हैं। इस श्लोक में वैराग्य के साथ आत्मतत्त्व में लीन होना और कर्म-मल से शुद्ध होने की बात भी कही है। एक आश्चर्य की बात - यत् पञ्चाभ्यन्तरैः पापैः सेव्यमानः प्रबध्यते। न तु पञ्चबहिर्भूतैराश्चर्यं किमतः परम् ।।२८५।। अन्वय :- यत् पञ्चाभ्यन्तरैः पापैः सेव्यमानः प्रबध्यते, न तु पञ्चबहिर्भूतैः अत: किम् परम आश्चर्यम्। सरलार्थ :- जो जीव अन्तरंग में स्थित पाँच पापों से सेव्यमान है वह तो बन्ध को प्राप्त होता है; किन्तु जो बहिर्भूत पाँचों पापों से सेव्यमान है, वह बन्ध को प्राप्त नहीं होता; इससे अधिक आश्चर्य की बात और क्या है? भावार्थ :- अन्तरंग सेना के अंगरक्षक जवानों की सेवा को प्राप्त एवं सुरक्षित हुआ राजा शत्रु से बाँधा नहीं जाता; परन्तु जब वे अंगरक्षक उसकी सेवा में नहीं होते और राजा अकेला पड़ जाता है, तब वह शत्रु द्वारा बाँध लिया जाता है। ___ यहाँ इस लोक-स्थिति के विपरीत यह दिखलाया है कि जो जीव अन्तरंग में स्थित पाँच पापरूप अंगरक्षकों से सेवित है वह तो कर्मशत्रु से बँध जाता है; परन्तु जिसके उक्त पाँच सेवक बहिर्भूत हो जाते हैं - उसकी सेवा में नहीं रहते और वह अकेला पड़ जाता है, उसे कर्मशत्रु बाँधने में असमर्थ हैं। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/188]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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