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________________ निर्जरा अधिकार १८७ अन्वय :- परद्रव्य-जिहासया आत्मनः स्वरूपं भाव्यं। (य:) परद्रव्यं न जहाति (सः) आत्मरूप-अभिभावकः (अस्ति)। सरलार्थ :- अपने संयोग में प्राप्त परद्रव्य के त्याग की भावना से निज आत्म-स्वरूप की भावना भानी चाहिए। जो परद्रव्यों को नहीं छोड़ते अर्थात् उनके संबंध में अपना रागभाव नहीं छोड़ते, वे अपने शुद्धात्मस्वरूप का अनादर करते हैं। ____ भावार्थ :- परद्रव्य के त्याग की भावना से आत्मस्वरूप की भावना भाने की प्रेरणा ग्रंथकार इस श्लोक में दे रहे हैं। प्रश्न :- परद्रव्य के साथ आत्मा का कुछ संबंध ही नहीं यह विषय पिछले श्लोक में ही बताया और अब परद्रव्य की त्याग की बात कैसे और क्यों बता रहे हैं? जहाँ परद्रव्य के साथ आत्मा का कुछ संबंध ही नहीं तो हम उसका त्याग भी कैसे करें? उत्तर :- आपका कहना सही है। परद्रव्य के साथ आत्मा का कछ संबंध न होने से आत्मा उसका त्याग भी नहीं कर सकता। अज्ञानी मोहवश परद्रव्य को अपना मानता है, उस मिथ्या मान्यता का त्याग करना ही परद्रव्य का त्याग है। परद्रव्य मेरा कुछ नहीं लगता, ऐसा यथार्थ वस्तु-स्वरूप को जानना ही त्याग है। णाणं पच्चक्खाणं/ज्ञान ही प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग है, ऐसा कथन समयसार गाथा ३४ और उसकी टीका एवं भावार्थ में भी आया है। परद्रव्य को अपना मानने में अपने आत्मा का अनादर स्वयं ही हो जाता है। परद्रव्य को जानने का लाभ - विज्ञातव्यं परद्रव्यमात्मद्रव्य-जिघृक्षया। अविज्ञातपरद्रव्यो नात्मद्रव्यं जिघृक्षति ।।२८३।। अन्वय :- आत्मद्रव्य-जिघृक्षया (गृहीतुमिच्छया) परद्रव्यं विज्ञातव्यं । अविज्ञात परद्रव्यः आत्मद्रव्यं न जिघृक्षति। सरलार्थ :- आत्मद्रव्य को ग्रहण करने की इच्छा से परद्रव्य को जानना चाहिए। जो परद्रव्य के ज्ञान से रहित है वह आत्मद्रव्य के ग्रहण की इच्छा नहीं करता। भावार्थ :- जैसे जगत में मनुष्य अपने मकान को यह अपना घर है, मैं इसका मालिक हूँ, मुझे इसमें रहने और प्रवेश करने के लिये कोई रोक नहीं सकता - ऐसा जानता है। वैसे आत्मद्रव्य को ग्रहण करने की इच्छा से अर्थात् अपने त्रिकाली शुद्ध आत्मा में रमण करके आनंदित होने के लिये ज्ञानी अपने आत्मा को जानता है। जैसे पड़ौसी के अथवा अपने मोहल्ले और गली में स्थित दूसरे के घर को भी अपने घर का ज्ञान करने के लिये ही जानता है वैसे ही जीवादि अनंतानंत परद्रव्यों को भी अपने निज भगवान आत्मा को जानने के लिये जानता है । आत्मा का स्वभाव स्व-परप्रकाशक है, यह विषय भी इस श्लोक में आया है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/187]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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