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________________ निर्जरा अधिकार १८९ लोक-व्यवहार एवं प्रत्यक्ष के विरुद्ध होने से इसपर भारी आश्चर्य व्यक्त किया गया है और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि जिन पापों को तुम अपने संगी-साथी एवं रक्षक समझते हो वे सब वस्तुतः तुम्हारे बन्ध के कारण हैं, उनका साथ छोड़ने पर ही तुम बन्ध को प्राप्त नहीं हो सकोगे। अज्ञानी प्राणी समझता है कि मैं हिंसा करके, झूठ बोलकर, चोरी करके, विषय सेवन करके और परिग्रह को बढ़ाकर आत्मसेवा करता हूँ - अपनी रक्षा करता हूँ, यह सब भूल है। इन पाँचों पापों से, जो कि वास्तव में सेवक-संरक्षक न होकर अन्तरंग शत्रु हैं, कर्मों का बन्धन दृढ़ करते हैं। अतः जो कर्मों के बन्धन से बँधना नहीं चाहते उन्हें अपने हृदय से इन पाँचों पापों को निकाल बाहर कर देना चाहिए, तभी अबन्धता और अपनी रक्षा हो सकेगी। जिसकी उपासना उसकी प्राप्ति - ज्ञानस्य ज्ञानमज्ञानमज्ञानस्य प्रयच्छति। आराधना कृता यस्माद् विद्यमानं प्रदीयते ।।२८६।। अन्वय :- ज्ञानस्य कृता आराधना ज्ञानं प्रयच्छति । अज्ञानस्य (कृता आराधना) अज्ञानं (प्रयच्छति यतः) यस्मात् (यत्) विद्यमान (तत् एव) प्रदीयते। सरलार्थ :- जो विवेकी जीव ज्ञान की अर्थात् ज्ञानस्वभावी आत्मा की उपासना करता है, उसे ज्ञान प्राप्त होता है और जो अविवेकी अज्ञान की अर्थात् अज्ञानस्वभावी जड़ की उपासना करता है, उसे अज्ञान प्राप्त होता है; क्योंकि यह जगप्रसिद्ध सिद्धांत है कि जिसके पास जो वस्तु होती है, वह वही देता है। भावार्थ :- उपासना और ध्यान का अर्थ ज्ञान करते रहना है। जो ज्ञानी अपने ज्ञान को जानने में जोड़ता है, उसे ज्ञान मिलता है । जो अपने ज्ञान को अज्ञानी अर्थात् पुद्गलादि द्रव्यों को जानने में संलग्न करता है, उसे अज्ञान मिलता है। इससे यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि इस दुनिया में जो जिसको चाहता है, उसे वह मिलता है । शर्त मात्र इतनी सी है - अपेक्षित वस्तु को अपने ज्ञान का ज्ञेय बनाना चाहिए। यही विषय इष्टोपदेश श्लोक २३ में भी आया है। प्रश्न :- हम यदि धन, वैभव आदि को अपने ज्ञान का विषय सदा बनाते रहेंगे तो धनादि ही मिलेंगे ना? उत्तर :- आपने ग्रंथकार का अभिप्राय नहीं समझा। भाई! यदि आप धन कमाने में अपने उपयोग को लगाओगे तो अज्ञान की प्राप्ति होगी; क्योंकि धनादि वैभव सब अज्ञानरूप अर्थात् अज्ञानी हैं। धनादि वैभव तो पूर्वपुण्य के उदयानुसार मिलते हैं; चाहने से नहीं मिलता । धनादि की अपेक्षा रखना तो लोभ कषाय है और कषाय-परिणाम से पाप मिलेगा। जो जैसा वस्तु-स्वरूप है, उसे वैसा ही स्वीकार करना आवश्यक है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/189]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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