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________________ योगसार प्राभृत १८६ किसी साधन से नहीं । जो अज्ञानी जीव अन्य साधनों से अर्थात् व्रत, उपवास, पुण्य, पूजा, परोपकार, दान, तप, भक्ति, नाम-स्मरण आदि से आत्मा की शुद्धि चाहते हैं, वे सब जीव मिथ्यादृष्टि हैं। भावार्थ :- इस श्लोक में ग्रंथकार ने निश्चय / उपादान कारण का कथन करते समय व्यवहारनय से कथित साधनों को गौण करते हुए उनका निषेध किया है। व्रत, उपवास, दान आदि पुण्यपरिणाम और पुण्यक्रियाओं का साधक के जीवन में अस्तित्व ही न मानें, उनको निमित्त भी न मानें तो अनुचित हैं। जो कारण/साधन, कार्य में मात्र निमित्त ही होते हैं, उनको वैसा ही मानना चाहिए । निमित्त कारणों को उपादान कारण अथवा उत्पादक कारण मानना वस्तु-व्यवस्था के विरुद्ध है। अतः यहाँ निमित्तों को निमित्त मानने का निषेध नहीं है; ऐसा यथार्थ जानना / मानना चाहिए। निमित्त-उपादान के यथार्थ ज्ञान के लिये पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित निमित्तोपादान एवं मूल में भूल नामक पुस्तकें अवश्य पढ़ें । सर्व परद्रव्यों से आत्मा का संबंध नहीं स्पृश्यते शोध्यते नात्मा मलिनेनामलेन वा । पर-द्रव्य-बहिर्भूतः परद्रव्येण सर्वथा । । २८१ ।। अन्वय :- मलिनेन वा अमलेन परद्रव्येण आत्मा न स्पृश्यते (न) शोध्यते । (यतः आत्मा) सर्वथा पर - द्रव्य- बहिर्भूतः (अस्ति) । सरलार्थ :- समल अथवा निर्मल कोई भी परद्रव्य आत्मा को स्पर्श नहीं कर सकता और आत्मा को शुद्ध भी नहीं कर सकता; क्योंकि आत्मा परद्रव्यों से सर्वथा बहिर्भूत अर्थात् भिन्न है । भावार्थ :• पिछले श्लोक में आत्मा, आत्मज्ञान से ही शुद्ध होता है, यह विषय बताया है। इस श्लोक में भी उसी विषय को और अधिक स्पष्ट किया है। - किसी भी परद्रव्य का आत्मा के साथ तादात्म्य संबंध ही नहीं है इसलिए परद्रव्य चाहे समल हो अथवा निर्मल जब वह आत्मा को स्पर्श ही नहीं कर सकता तब वह आत्मा को शुद्ध कैसे कर सकता है? अर्थात् शुद्ध कर ही नहीं सकता । आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार गाथा ३ की टीका में इसे विशेष स्पष्ट किया है, उसे अवश्य देखें और समयसार कलश २०० में भी निम्न शब्दों में यही भाव बतलाया गया है । नास्ति सर्वोऽपि संबंधः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः । कर्तृकर्मत्वसंबंधाभावे तत्कर्तृ कुतः॥ श्लोकार्थ :- परद्रव्य और आत्मतत्त्व का कोई भी संबंध नहीं है; इसप्रकार कर्तृ-कर्मत्व के संबंध का अभाव होने से आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है ? निजात्मस्वरूप की भावना भानी चाहिए स्वरूपमात्मनो भाव्यं परद्रव्य-जिहासया । जहाति परद्रव्यमात्मरूपाभिभावकः । । २८२ ।। न [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/186]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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