SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन्ध अधिकार मरणादिक सब कर्म-निर्मित - कर्मणा निर्मितं सर्वं मरणादिकमात्मनः । कर्मावितरतान्येन कर्तुं हर्तुं न शक्यते ।।१६०।। अन्वय :- आत्मनः मरणादिकं सर्वं कर्मणा निर्मितं (वर्तते)। कर्म-अवितरत-अन्येन (मरणादिकं सर्वं) कर्तुं हर्तुं न शक्यते। सरलार्थ :- आत्मा का मरण-जीवन, सुख-दुःख, रक्षण, पीड़न - ये सब कार्य कर्म द्वारा निर्मित हैं । जो कर्म को नहीं देनेवाले ऐसे अन्यजन हैं, उनके द्वारा जीवन-मरणादिक का करना-हरना कभी नहीं बन सकता। भावार्थ :- मरणादिक कार्यों को इस श्लोक में कर्मनिर्मित बतलाया है; जैसे मरण आयुकर्म के क्षय से होता है, आयुकर्म के उदय से जीवन बनता है। साता वेदनीय कर्म का उदय सुख का और असाता वेदनीय कर्म का उदय दुःख का कारण होता है। जब एक जीव दूसरे जीव को कर्म नहीं देता और न उसका कर्म लेता है तो फिर वह उस जीव के कर्म-निर्मित कार्य का कर्ता-हर्ता कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता । इसलिए अपने को पर का कर्ता-हर्ता मानना मिथ्याबुद्धि है, जो बन्ध का कारण है। आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार कलश १६८ में इसी विषय को अत्यंत सुगम एवं स्पष्ट शब्दों में बताया है, उसे अवश्य देखें। जिलाने आदि की मान्यता मिथ्यात्वजनित - या जीवयामि जीव्येऽहं मार्येऽहं मारयाम्यहम् । निपीडये निपीड्येऽहं सा बुद्धिर्मोहकल्पिता ।।१६१।। अन्वय :- (अहं) जीवयामि, अहं जीव्ये, अहं मारयामि, अहं मार्ये, (अहं) निपीडये, निपीड्ये या बुद्धिः सा मोह-कल्पिता (भवति)। सरलार्थ :- मैं दूसरे जीवों को जिलाता हूँ, मुझे दूसरे जीव जिलाते हैं, मैं दूसरे जीवों को मारता हूँ, मुझे दूसरे जीव मारते हैं, मैं दूसरे जीवों को पीड़ा देता हूँ, मुझे दूसरे जीव पीडा देते हैं - इसतरह की जो मान्यता है, वह मिथ्यात्व से निर्मित अर्थात् मोह से की हुई कल्पना ही है। भावार्थ :- पिछले श्लोक में मिथ्यादृष्टि की जिस बुद्धि का उल्लेख किया है, उसी का इस पद्य में स्पष्टीकरण है और उसे मोहकल्पिता'-दर्शन मोहनीय (मिथ्यात्व) कर्म के उदय-द्वारा कल्पित बतलाया है। अतः मैं दूसरे को जिलाता या मारता हूँ, दूसरा मुझे जिलाता या मारता है, इत्यादि प्रकार की बुद्धि से जो शुभ या अशुभ कर्म का बन्ध होता है, उसे भी मिथ्यात्वजन्य समझना चाहिए। ऐसी बुद्धिवाले जीव को श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में ‘सो मूढो अण्णाणी' इस वाक्य के द्वारा [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/117]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy