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________________ योगसार-प्राभृत कोई किसी का मरणादि नहीं कर सकता - मरणं जीवनं दुःखं सौख्यं रक्षा निपीडनम्। जातु कर्तुममूर्तस्य चेतनस्य न शक्यते ।।१५८।। अन्वय :- अमूर्तस्य चेतनस्य जीवनं मरणं सौख्यं दुःखं रक्षा निपीडनं कर्तुं जातु न शक्यते । सरलार्थ :- इस संसार में अनादि-अनन्त एवं अमूर्तिक चेतन आत्मा का जीवन, मरण, सुख, दुःख, रक्षण एवं पीडन करने के लिये अन्य कोई भी और कभी भी समर्थ नहीं है। भावार्थ :- जिनेन्द्र कथित वस्तु-व्यवस्था के अनुसार अनंत अमूर्त जीव अनादिकाल से स्वत:सिद्ध हैं और स्वभाव से वे सर्व भविष्य में अनंतकाल तक रहेंगे ही। अतः कोई एक जीव दूसरे एक अथवा अनेक जीवों का नाश अर्थात् मरण कर ही नहीं सकता। जो संसार में मरणरूप कार्य देखा जाता है, वह मात्र देह-परिवर्तनरूप परिणाम है। जीव यहाँ से कहीं न कहीं अन्य अवस्थारूप में जाकर उत्पन्न होता है। दूसरा कारण-जीव अमर्तिक होने से भी उसका नाश नहीं किया जा सकता। मारणादि परिणामों से कर्मबन्ध - विदधानः परीणामं मारणादिगतं परम् । बध्नाति विविधं कर्म मिथ्यादृष्टिर्निरन्तरम् ।।१५९।। अन्वय :- मिथ्यादृष्टिः निरंतरं परं मारणादिगतं परीणामं विदधानः विविधं कर्म बध्नाति । सरलार्थ :- वास्तविक वस्तु-व्यवस्था को न जाननेवाला मिथ्यादृष्टि/अज्ञानी अपने से संबंधित अन्य जीवों के मारणादि विषयक अशुभ परिणाम करता हुआ सतत अनेक प्रकार के दुःखदायी कर्मों को बाँधता रहता है। भावार्थ :- कैसा आश्चर्यकारी स्वभाव है - अज्ञानी किसी को मारने का मात्र भाव ही करता है, सामनेवाले किसी भी जीव को मार तो सकता नहीं; तथापि मात्र मारनेरूप भाव के अपराध से कर्मों का बन्ध तो करता ही है। एक दृष्टि से न किये अपराध की सजा मिल गई, कोई ऐसी शंका भी कर सकता है। इसका उत्तर यहाँ आचार्य देते हैं - पर को मारने का भाव ही अपराध है, उस अपराध का ही फल अज्ञानी को मिलता है। मारण के साथ. प्रयक्त आदि शब्द से यहाँ दःख देना.पीडा पहँचाना तो लिया ही है. साथ ही जीवित रखना.सख पहँचाना. रक्षा करना आदि भावों को भी लिया है। इन पाप-पुण्य परिणामों के अनुसार कार्य होने का नियम तो नहीं है; लेकिन कर्मबन्ध होने का तो पक्का नियम समझना चाहिए। जैसे मारने का भाव अपराध है, वैसे बचाने आदि के भाव भी वस्तु-स्वरूप के विपरीत होने से अपराध ही हैं, यह समझना महत्त्वपूर्ण है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/116]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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