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________________ आर्त (दुखद) ध्यान के विविध रूप १२७ १२६ ये तो सोचा ही नहीं झलकने लगे, जिनमें उसने लौकिक कामनाओं से अपने धन-वैभव के अर्जन, संरक्षण एवं उसके उपभोग हेतु देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पश बलि जैसे क्रूर कर्म करने के नाना प्रयास किए थे. मिन्नते माँगी थीं। उसे महसूश हो रहा था कि उसकी वे धार्मिक क्रियाएँ सकाम होने से, निष्काम न होने से निदान आर्तध्यान ही थीं। उनमें धर्म किंचित् भी नहीं था। ___ अधिकांश व्यक्ति अपनी समस्त शक्ति और समय मनुष्य पर्याय को सुखी और समृद्ध बनाने में ही झोंक देते हैं, यद्यपि वे जानते हैं कि हम जन्म के पहले भी थे और मरने के बाद भी अपनी-अपनी करनी के अनुसार ८४ लाख योनियाँ ही कहीं न कहीं रहेंगे; फिर भी यह नहीं सोचते कि यही जन्म सब कुछ नहीं है, अगले जन्म के लिए भी कुछ ऐसा करें ताकि कीड़े-मकोड़ों की योनि में न जाना पड़े। उन्हें नहीं मालम कि लौकिक कामनाओं से किए गए पूजा-पाठ, जप-तप आदि सब निदान आर्तध्यान की कोटि में ही आते हैं। ज्ञानेश के कल के प्रवचन में यह बात बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट हो गई थी। ___ गीता के निष्काम कर्म करने के उल्लेख के साथ प्रवचन में तो यहभी आया था कि “धर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ अज्ञानी की समस्त शुभाशुभभावनाएँ आर्तध्यान में ही मानी जावेंगी; क्योंकि मिथ्या मान्यता में धर्मध्यान तो होता ही नहीं है और ध्यान के बिना कोई रहता नहीं है; अत: अज्ञानी का शुभाशुभभाव निदान नामक आर्तध्यान ही है।” __इसीप्रकार और भी सभी श्रोता ऐसा ही महसूश कर रहे थे कि हमें भी आर्तध्यान ही हो रहा है। ज्ञानेश के प्रवचनों से प्रेरणा लेकर जिसने भी अपने अंदर झांक कर देखा तो सभी को ऐसा लगा मानो वे हमारे हृदय की बात ही कह रहे हों । सभी को अपनी-अपनी भूल का अहसास हो रहा था, अपने भावों की, परिणामों की पापमय परिणति स्पष्ट दिखाई दे रही थी। ज्ञानेश ने अपने प्रवचन में कहा - "यदि इस आर्तध्यान से बचना है, धर्म ध्यान की भावना है तो उसके लिए तो पुण्य-पाप आदि का एवं आत्मा-परमात्मा का यथार्थ ज्ञान करना ही होगा। निश्चय धर्मध्यान ज्ञानचेतना की वह अवस्था है, जहाँ समस्त शुभ विकल्प भी अस्त होकर एक आत्मानुभूति ही रह जाती है, विचार श्रृंखला रुक जाती है, चित्त की चंचलवृत्ति निश्चल हो जाती है, अखण्ड आत्मानुभूति में एकमात्र शुद्धात्मा का ही ध्यान रहता है। इसप्रकार विचारों को आत्मकेन्द्रित किया जाना धर्मध्यान है। मुख्यतः विश्व की कारण-कार्य व्यवस्था, वस्तुस्वातंत्र्य जैसे सिद्धान्तों के सहारे अकर्तृत्व की भावना को दृढ़ करते हुए संसार, शरीर और भोगों से विरक्त करनेवाली चिन्तनधारा के माध्यम से जगत की क्षणभंगुरता को जानकर, जगत से उदास होने पर ही चंचल चित्तवृत्ति नियंत्रित की जा सकती है। इसी प्रक्रिया का नाम धर्मध्यान है। जबतक पर-पदार्थों और अन्य जीवों में किसी भी प्रकार से परिवर्तन करने की अनधिकार चेष्टा रहेगी, तबतक मन की वृत्ति/प्रवृत्ति पर नियंत्रण संभव नहीं होगा। हाँ, जब तक इस दिशा में पुरुषार्थ जाग्रत नहीं हो, तब तक ऐसे आत्म-सन्मुख पुरुषार्थ की पात्रता प्राप्त करने के लिए लौकिक सज्जनता, आजीविका के साधनों की शुद्धि और आहार-विहार में अहिंसक आचरण की भावना हो; क्योंकि ये ही धर्म का मल स्रोत है।" इसप्रकार ज्ञानेश के प्रभावशाली प्रवचनों को सुनकर सभी श्रोता अपने को धन्य अनुभव कर रहे थे।
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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