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________________ १२५ 64 अठारह आर्तध्यान के विविध रूप पवित्र उद्देश्य, नि:स्वार्थ भाव और निश्छल मन से निकली पुण्यात्मा की आवाज सरलस्वभावी सजग श्रोताओं के मन को छुए बिना नहीं रहती। ज्ञानेश ने जब अपने प्रवचन में आर्तध्यान के दुखद फल का सशक्त भाषा में वैराग्यवर्द्धक चित्रण प्रस्तुत किया तो अनेक लोगों की तो आँखें भर आईं। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि श्रोताओं ने ज्ञानेश के मार्गदर्शन का अक्षरशः पालन करने का संकल्प कर लिया। सबसे अधिक धनेश, धनश्री, मोहन और रूपश्री प्रभावित हुए; क्योंकि ज्ञानेश के प्रवचन ने सबसे अधिक इन्हीं लोगों की दुखती रग को छुआ था, इन्हीं के हृदय पर गुजर रही स्थिति को उजागर किया था। इन्हें ऐसा लग रहा था कि मानो ज्ञानेश ने इनके हृदय मे बैठकर इनके मनोभावों का ही चित्रण किया हो। मोहन सोच रहा था - यह इष्ट वियोगज, अनिष्ट संयोजक नाम आर्तध्यान ऐसा राजरोग है, जो थोड़ा-बहुत तो सभी को होता है; पर हम जैसे अधर्मी और अज्ञानियों को तो यह बहुत बड़ा अभिशाप है, इससे कैसे बचा जाये? धनश्री तो अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान की साक्षात् मूर्ति ही है। उसका अब तक का संपूर्ण जीवन इसी आर्तध्यान में बीता है। पिता मोहन के दुर्व्यसनी होने के कारण उसका बचपन जिन प्रतिकूल परिस्थितियों में बीता, जो-जो यातनायें उसे उन प्रतिकूल प्रसंगों में भोगनी पड़ीं, उन सबको चित्रित करता हुआ ज्ञानेश का प्रवचन सुनकर आर्त (दुखद) ध्यान के विविध रूप उसकी आँखों के सामने वे सब दृश्य चलचित्र की भाँति आने-जाने लगे। उस समय धनश्री यह सोच रही थी कि - 'हाय ! इन भावों का फल क्या होगा ? इनसे छुटकारा कैसे मिले ?' ____ भरे यौवन में धनेश जैसे पियक्कड़ पति को पाकर जिन अनिष्ट संयोगों के निमित्त से होने वाले आर्तध्यान के दुष्चक्र में वह फंस गई थी; वे दृश्य भी उसकी दृष्टिपथ से गुजरे बिना नहीं रहे। वह रात भर बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अनिष्ट की आशंका से इतनी घबरा गई कि उसकी नींद ही गायब हो गई। रूपश्री इष्ट वियोगज आर्तध्यान का मूर्तरूप थी। उसका तो अबतक का पूरे जीवन का हाल ही बेहाल रहा। ज्ञानेश के प्रवचन से उसके स्मृति-पटल पर वे सभी दु:खद दृश्य उभर आये। इन्हीं इष्टवियोग की परिकल्पनाओं से उसका बचपन बीता था और यौवन की सुखद कल्पनायें भी आकस्मिक हुई दुर्घटना से अनायास ही धूल में मिल गईं। उसके जीवन में घटित हुए वे एक-एक दृश्य उसकी आँखों के आगे भी आने-जाने लगे होंगे। धनेश दुर्व्यसनों के कारण राज-रोगों से ऐसा घिर गया था कि दिन-रात पीड़ा से कराहता रहता। अब तो पीड़ा की कल्पना मात्र से चीखने-चिल्लाने लगता है। कल के प्रवचन में जब पीड़ा चिंतन आर्तध्यान के दुःखद दुष्परिणामों का चित्रण हुआ तो धनेश की दशा और भी अधिक खराब हो गई। वह तो गिड़-गिड़ा कर वहीं ज्ञानेश के चरणों से लिपट गया और उससे कहने लगा - 'इससे बचने का उपाय बताइए। आप जो कहेंगे, मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ।' इसीतरह मोहन का अब तक सारा समय निदान नामक आर्तध्यान में ही बीता था । ज्ञानेश के प्रवचनों से उसे भी अपनी इस भूल का पूरापूरा अहसास हो गया। उसकी आँखों के सामने भी वे सब दृश्य स्पष्ट
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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