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________________ 66 उन्नीस बहुत सा पाप पाप सा ही नहीं लगता "हमने कभी सोचा भी नहीं होगा, वस्तुतः सामान्यरूप से कोई सोच भी नहीं सकता कि प्रतिदिन प्रात: आँखे खोलते ही हम जो न्यूज पेपर पढ़ने से अपनी दिनचर्या प्रारम्भ करते हैं, उसमें भी राग-द्वेष एवं हर्ष-विषाद होने से पापों का बन्ध होता है। पर वास्तविकता यह है कि हमारे प्रभात का प्रारम्भ - ऐसे ही अप्रयोजनभूत पाप भावों से होता है, जिनसे हमारे किसी लौकिक प्रयोजन की भी पूर्ति नहीं होती। सामान्य जनमानस को बड़े-बड़े नेताओं के पारस्परिक संघर्ष से क्या लेना-देना है ? उन्हें क्या उपलब्धि होनेवाली है नेताओं की गतिविधियाँ जानने से? अत: वे सोचते हैं - हम हर्ष-विषाद कर पाप-कर्म क्यों बाँधे ? इसप्रकार यदि थोड़ा भी विवेक से काम लें तो हम बहुत-से व्यर्थ के पापों से बच सकते हैं और अपने जीवन को मंगलमय बना सकते हैं। विचार कीजिए - बिस्तर छोड़ते ही सबसे पहले हमारे हाथों में समाचार-पत्र होता है; मुख्य समाचार पढ़ते ही हमारा मनमर्कट या तो हर्षित हो उछल-कूद करने लगता है या उदास होकर मुँह लटका लेता है, खेदखिन्न हो जाता है। उस समय मन में जो हर्ष-विषादरूप नानाप्रकार के संकल्प-विकल्प होते हैं, उनमें हर्ष के भाव रौद्रध्यान और विषाद के भाव आर्तध्यान की कोटि में आते हैं; जो कि पूर्णरूप से पापभाव हैं।" इसप्रकार अपने दैनिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में रौद्रध्यान की चर्चा करते हुए ज्ञानेश ने आगे कहा - "हमें स्वयं का ही पता नहीं है कि हम कितने गहन अंधकार में हैं। बहुत सारे पापभाव तो हमें पाप से ही नहीं लगते। घर में सब परिजन-पुरजन जब एकसाथ बैठकर बड़े प्रेम से बहुत सा पाप पाप सा ही नहीं लगता टी.वी. देखते हैं, पत्नी से प्रेमालाप करते हैं, बच्चों से बातें करते हुए उन्हें प्रसन्न देख-देख हम गौरवान्वित होते हैं और अपने घर-परिवार को आदर्श मानते हैं ; तब यदि धर्म की दृष्टि से उस वातावरण की समीक्षा करें और परिणामों की परीक्षा करें, भावों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि - क्या सचमुच उस समय हमें धर्म हो रहा है, पुण्यबंध हो रहा है या पापबंध हो रहा है ? निश्चित ही ये शुभ-अशुभ भाव होने से पुण्य एवं पाप परिणाम ही हैं और विषयानन्दी एवं परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान के भाव होने से पाप भाव ही हैं। जो हिंसा में आनन्द मानता है, असत्य बोलने में आनन्द मानता है, चोरी, विषयसेवन और परिग्रह संग्रह करने में आनन्द मानता है, इनमें ही जिसका चित्त लिप्त रहता है, रमा रहता है, वह सब पापभाव रूपरौद्रध्यान है।" ध्यान रहे - "आर्तध्यान की प्रकृति दुःखरूप है और रौद्रध्यान की आनंदरूप है। ___कहो भाई धनेश ! तुम्हारा - 'खाओ-पिओ और मौज करो' वाला सिद्धान्त किस ध्यान की कोटि में आता है?" धनेश एकक्षण सोचकर बोला - "आपके कहे अनुसार तो ये परिणाम रौद्रध्यान रूप पापभाव ही हुए; क्योंकि खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ वाली वृत्ति विषयों में आनन्द मानने रूप ही तो है।" ____ मुस्कराते हुए ज्ञानेश ने कहा - "वाह ! भाई वाह ! ! बात तो तुमने ध्यान से सुनी और समझी भी, इसके लिए तुम्हें धन्यवाद । भाई ! सारा जगत इन्हीं विषयों में और विषय-सामग्री के संग्रह करने में मगन है। किसी ने कभी यह सोचा ही नहीं कि हमारे इन परिणामों का फल क्या होगा? देखो भाई ! धर्म के अनुसार पुण्य-पाप व धर्म का मूल आधार तो
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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