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________________ ९६ 50 ये तो सोचा ही नहीं हिंसक हत्यारा, कहाँ मारीचि जैसा मिथ्यादृष्टि और कहाँ परमपूज्य भगवान महावीर स्वामी की परम पवित्र पर्याय ? भील के भव में उन्होंने क्या-क्या पाप नहीं किये होंगे? शराब भी पीते ही होंगे, मांस भी खाते ही होंगे। आखिर जंगली ही तो थे। अत: भूत को तो भुलाना ही पड़ेगा। वर्तमान को संभालने से भविष्य अपने आप संभल जाता है। अत: वह जब चेता तभी ठीक । कल्याण होने में देर ही क्या लगती है ? अनन्त काल की भूलों को मेटने के लिए अनन्त काल थोड़े ही लगता है ? जिसप्रकार रातभर के स्वप्न जागते ही समाप्त हो जाते हैं; ठीक उसीप्रकार भेदज्ञान होते ही, सम्यग्ज्ञान का सूर्य उदित होते ही, सारा अज्ञान अन्धकार नष्ट हो जाता है और पापाचार छूट जाते हैं।" ____ छठवें मित्र ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - "हाँ, अब भी यदि वह आत्मा का आश्रय न ले सका और मूलभूत सिद्धान्तों को न समझ सका, केवल बाह्य धर्मक्रियाओं को ही धर्म मानकर संतुष्ट हो गया तो वह पीड़ाचिंतन जैसे आर्तध्यान से स्वयं को नहीं बचा पाएगा। जब इतने भयंकर रोगों से उसकी देह ग्रसित है तो दर्द तो होगा ही। बार-बार उस दर्द की ओर ध्यान जाए बिना नहीं रहेगा। शारीरिक पीड़ा के साथ मानसिक पीड़ा भी होती ही है। इस सबसे बचने के लिए देह और आत्मा की भिन्नता और व्यक्ति तथा वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त को सतत् याद रखना, अपने किए पापों के फल का विचार और संसार की असारता का बारम्बर स्मरण करना अत्यन्त आवश्यक है। अन्यथा पीड़ाचिंतन रूप आर्तध्यान का फल तो अधोगति ही है; क्योंकि इसमें परिणाम निरन्तर संक्लेशमय रहते हैं। अत्यन्त संक्लेश भावों से मरण करके भयंकर दुखद नरक में जाते हैं। अत: यदि अपना कल्याण करने की अभिलाषा जगी हो तो ज्ञानेश पाप से घृणा करो, पापी से नहीं जैसे व्यक्ति के सान्निध्य में रहना ही होगा, उनका सत्संग करना ही होगा।" वैसे तो दुनिया में बहुत कलायें हैं; परन्तु उनमें दो मुख्य हैं - एक आजीविका और दूजी आत्मोद्धार । अथवा एक जीविका और दूसरी जीवोद्धार एक वर्तमान जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु और दूसरी परलोक में सुखद जीवन प्राप्त करने के लिए। ___ ज्ञानेश दोनों कलाओं में निपुण है। जीवन में सफलता के सूत्रों की चर्चा करते हुए उसने कहा था - १. सर्वप्रथम यह ध्येय निश्चित करना कि - जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु न्याय नीति पूर्वक आर्थिक सम्पन्नता के साथ-साथ परलोक में सुखद आत्मकल्याणकारी संयोगों की उपलब्धि के लिए आध्यात्मिक वातावरण बनाना एवं उसके लिए साधन जुटाना। २. ध्येय प्राप्त करने के लिए आयोजन (प्लानिंग) करना एवं आयोजनों को सफल करने के लिए परिश्रम से पीछे नहीं हटना। ३. ध्येय के अनुरूप वातावरण बनाना। ४. ध्येयों की सिद्धि के लिए अनुकूल अवसरों की तलाश करना एवं प्राप्त अवसरों का भरपूर उपयोग करना/कराना। ५. बीच-बीच में आये चेलेन्जों एवं समस्याओं को हँसते-हँसते स्वीकार करना एवं सकारात्मक समाधान खोजना। इसप्रकार धनेश और ज्ञानेश को लेकर उसकी मित्रमण्डली में काफी अच्छा ऊहापोह हुआ। जिससे अनेक लोगों के भ्रम भी भंग हुए तथा बहुत से तथ्य भी सामने आये। किसी ने ठीक ही कहा है - "वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः।" ऐसी चर्चा करते-करते सभी अपने-अपने घर चल गये।
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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