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________________ किसने देखे नरक 51 चौदह किसने देखे नरक विज्ञान ने सोचा - "भारतीय भूमि पर जन्मे मानवों को धर्म का विशेष ज्ञान हो या न हो, वे धर्म के सही स्वरूप को जानते हों या न जानते हों, वे दुनिया की दृष्टि में धर्मात्मा हों या न हों; पर धर्म करने की भावना तो प्राय: सभी में रहती ही है। अपनी-अपनी समझ के अनुसार अधिकांश नर-नारी धर्मसाधन करते भी हैं। यह सब देखकर ऐसा लगता है कि अभी धर्म की भावना जिन्दा तो है, आत्मा के किसी न किसी कोने में धर्म संस्कार के बीज तो हैं, उन्हें मात्र उपयुक्त विवेकरूपी खाद-पानी की जरूरत है, सन्मार्ग दिखाकर सही दिशा देने की जरूरत है। भाई, धर्म प्रदर्शन की वस्तु नहीं है, अपनी मान-प्रतिष्ठा के लिए धर्मायतनों के निर्माण में धन दे देने मात्र से धर्म होने वाला नहीं है। उसके लिए स्वयं को धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करना होगा। आत्मापरमात्मा के स्वरूप को एवं ऑटोमेटिक विश्वव्यवस्था को समझकर पर-पदार्थों से मोह-राग-द्वेष त्याग कर समता एवं वीतरागी बनना है; क्योंकि सही मायने में वीतरागता ही धर्म है। सेठ लक्ष्मीलाल को अपने उद्योग-धंधों और व्यापार में अति व्यस्तता के कारण धर्मग्रन्थों को पढ़ने और उनमें से वीतराग होने के संबंध में शोध-खोज करने एवं परलोक के संबंध में सोचने का तो अभी समय ही कहाँ ? जब भी उनसे कोई प्रवचन में आने या स्वाध्याय करने की बात कहता तो उसका एक ही उत्तर होता है - "अरे भाई ! अभी तो मरने की भी फुर्सत नहीं है। हाँ, हमारे लायक कहीं/कोई काम हो तो कहना, आवश्यकतानुसार हम आपका तन-मन-धन से सहयोग करने को तैयार हैं।" सचमुच देखा जाए तो वास्तविक बात यह है कि उसे आत्मापरमात्मा और परलोक के विषय में न कुछ जानकारी है और न कुछ जिज्ञासा ही है। उसने इतनी दूरदृष्टि से कभी सोचा ही नहीं है। धार्मिक कार्यों में धन खर्च करने से ही उसे सर्वाधिक सम्मान मिलता रहा, इसकारण न्याय/अन्याय से पैसा कमाने व धर्म के नाम पर खर्च करने में ही उसकी रुचि बढ़ती गई। सेठ लक्ष्मीलाल के जितने भी पारमार्थिक ट्रस्ट हैं, वे कहने मात्र परमार्थ के हैं; वस्तुतः तो वे सभी भोग-सामग्री की प्राप्ति, उसी भोग सामग्री के संरक्षण एवं भोगों की पुष्टि के लिए ही हैं। अत: उसका तो स्पष्ट अशुभ आर्तध्यान ही है, जिसका फल पशु योनि है। ज्ञानेश ने सोचा - "उस बेचारे को कुछ पता तो है ही नहीं कि - मेरे जो ये भाव हो रहे हैं, इनका फल क्या होगा ? अत: ऐसा कोई उपाय अवश्य सोचना पड़ेगा, जिससे सेठ लक्ष्मीलाल धर्म की सही वस्तुस्थिति को समझ सके। धर्म का मर्म पहचाने । सेठ को मार्गदर्शन देने का अभी सभी प्रकार से अनुकूल अवसर है, यदि यह अवसर चूक गये तो.............." सेठ लक्ष्मीलाल ज्ञानेश के पिता का सबसे घनिष्ठ मित्र था। वह ज्ञानेश के पड़ोस में ही रहता था। घर जैसे ही संबंध थे उन दोनों परिवारों में। __यद्यपि सेठ लक्ष्मीलाल अपने गाँव में भी आर्थिक दृष्टि से खूब सम्पन्न था, कोई कमी नहीं थी उसे वहाँ; पर वह महत्त्वाकांक्षी बहुत था। अत: बीस वर्ष पहले व्यापार के विस्तार के लिए वह उद्योगनगरी
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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