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________________ विदाई की बेला/१० विदाई की बेला/१० 'मैं रागरंग से भिन्न, भेद से भी मैं भिन्न निराला हूँ। मैं हूँ अखण्ड चैतन्य पिण्ड, निज रस में रमने वाला हूँ।' 'मैं' तो अरस, अरूप, अगंध एवं अस्पर्श स्वरूपी चैतन्य तत्त्व हूँ। मेरा पर पदार्थों से कुछ भी संबंध नहीं है। मैं तो शुद्ध-बुद्ध निरंजननिराकार एक परम पदार्थ हूँ तथा पर की परिणति से सदा अप्रभावी हूँ। ___मैं ज्ञान का घनपिण्ड, आनन्द का रसकंद, चैतन्य सूर्य हूँ। मैं स्वयं ही ध्येय हूँ, श्रद्धेय हूँ, ज्ञान हूँ एवं ज्ञायकस्वभावी भगवान हूँ।" आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने भी श्रोता के स्वरूप का निरूपण करते हुए यही कहा है कि - "सर्वप्रथम विचार करो कि - मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वरूप है? यह चरित्र कैसे बन रहा है? ये मेरे भाव होते हैं, इनका क्या फल लगेगा। जीव दुःखी हो रहा है सो दुःख दूर होने का क्या उपाय है...?" अतः प्रतिदिन प्रातःकाल बिस्तर छोड़ते ही हाथ-पाँव और मुँह धोकर, आलस त्याग कर, पूर्ण सचेत होकर शान्त व एकान्त स्थान में बैठकर णमोकार मंत्र के माध्यम से पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का विचार किया करो । उसमें विचार करो कि - 'हे प्रभो! मुझमें और आपमें कोई अन्तर नहीं है, जैसे अनन्त ज्ञान-दर्शन के घनपिण्ड आप हैं, वैसा ही मैं हूँ, स्वभाव से जैसा मैं हूँ, वैसे ही आप हैं। एक समय की पर्याय में आप में और मुझमें मात्र इतना अन्तर है कि आप वीतरागी हो गये हैं और मैं अभी रागी-द्वेषी हूँ। इस अन्तर को मैं अपने सम्यक् पुरुषार्थ से जब चाहूँ तब बदल सकता हूँ। कहा भी है - 'मम स्वरूप है सिद्ध समान । अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान किन्तु आश वश खोया ज्ञान । बना भिखारी निपट अजान हूँ स्वतंत्र निश्चल निष्काम । ज्ञाता-दृष्टा आतमराम' तत्पश्चात् भेदज्ञान की विधि से अपने आत्मा के स्वरूप का विचार किया करो। १. आत्मकीर्तन : सहजानंदवर्णी 'अनुज-अग्रज सुत-सुता प्रिय सुहृद जन सब भिन्न हैं; ये शुभ-अशुभ संयोगजा चिवृत्तियाँ भी अन्य हैं। स्वोन्मुख चिवृत्तियाँ भी आत्मा से अन्य हैं; चैतन्यमय ध्रुव आत्मा गुण भेद से भी भिन्न हैं।। इसप्रकार भेदज्ञान द्वारा ऐसा विचार करो कि - “मैं राग से, देह से, गुणभेद से व निर्मल पर्यार्यों से भी सर्वथा भिन्न हूँ। मैं अनुज-अग्रज, पुत्रपुत्री, मित्रजन से तो भिन्न हूँ ही, शुभ-अशुभ रूप चैतन्य की वृत्तियों से भी अन्य हूँ।" ___ स्वाध्याय की प्रेरणा देते हुए मैंने आगे कहा - "संसार, शरीर व भोगों से विरक्ति के लिए बारह भावनाओं के माध्यम से इनकी क्षणभंगुरता एवं असारता का भी विचार करना । जैसा कि यत्र-तत्र कहा गया है। वस्तुस्वरूप की यथार्थ समझ के लिए आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना भी आवश्यक है। तभी विशुद्ध परिणाम होंगे और राग-द्वेष कम होंगे, कषायें कृश होंगी और समता व समाधि की प्राप्ति होगी।" __ मेरे इस कथन से वे भारी प्रसन्न हुए और उन्होंने उसी समय मुझे आश्वस्त करते हुए मेरे सामने ही इस दिशा में सक्रिय होने का दृढ़ संकल्प किया। उनके इस अलौकिक परिवर्तन से मुझे भारी प्रसन्नता हुई। इसके लिए मैंने तो उन्हें धन्यवाद दिया ही, उनके मुखमण्डल पर भी कृतज्ञता का भाव झलक आया। १. डॉ. भारिल्ल : आत्मगीत २. डॉ. भारिल्ल : बारहभावना (41)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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