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________________ विदाई की बेला / १० पर अच्छा प्रभाव पड़ा। परिणाम यह हुआ कि उनके परिवार में - पिता-पुत्रों व सास - बहुओं में अब तक जो मन-मुटाव रहा करता था, वह भी मिट गया और उनमें परस्पर प्रेम और धर्म के प्रति आस्था भी उत्पन्न हो गई। ७० उनके जीवन में अनायास हुए इस असंभावित परिवर्तन से वे तो प्रसन्न और प्रभावित थे ही, उनके अड़ौसी पड़ौसी एवं उनसे संबंधित अन्य अनेक परिवार भी मेरी चर्चा व व्यवहार से किसी न किसी रूप में प्रभावित थे । अतः सभी की इच्छा रहती थी कि मैं वहाँ अधिकतम रूकूँ । पर, मेरी भी अपनी कुछ निजी परिस्थितियाँ थीं, जिनके कारण मेरा घर पर लौटना आवश्यक था। वैसे भी आखिर घर से बाहर रहने की कुछ न कुछ मर्यादायें तो होती ही हैं। मैं कोई साधु-संत तो था नहीं, फिर साधु-संत भी तो एक ही स्थान पर अधिक काल तक नहीं ठहरते । इसी बीच मुझे बुलाने के घर से मेरे पास अनेक संदेश भी आ चुके थे, अतः मेरा घर पहुँचना आवश्यक हो गया था । सपत्नीक मेरे वापिस घर लौट आने पर मेरे प्रति उनका स्नेह और अधिक बढ़ गया था। अतः पत्राचार से परोक्ष संपर्क तो उन्होंने रखा ही, कुछ ही दिनों में वे दोनों प्रबुद्ध परिवार अपने पड़ोसियों सहित धर्मलाभ की भावना से कुछ दिन के लिए मेरे पास आ गये। उन्होंने आते ही अपनी लंबी यात्रा के बीच हुई व्यथा-कथा किए बिना और आव-भगत की अपेक्षा किए बिना मात्र यह निवेदन किया कि “भाई जी ! हम लोग आपके सान्निध्य का अधिकतम लाभ लेने आये हैं, अतः आप ऐसा कार्यक्रम बनायें, जिससे आपको विशेष कष्ट हुए बिना हमें आपका पूरा-पूरा लाभ मिल सके और हम जीवन जीने की कला में पूर्ण पारंगत हो सकें। हम अपने शेष जीवन को सार्थक कर लेना चाहते हैं।" (40) विदाई की बेला / १० मैंने मार्गदर्शन करते हुए कहा- “आपको सूर्योदय के पूर्व ब्रह्ममुहूर्त में उठकर सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का स्मरण करना चाहिए। तत्पश्चात् 'मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है? मेरे लिए क्या हेय है और क्या उपादेय?' इसका विचार करना चाहिए। देखो ! श्रीमद् राजचन्द्र इस विषय में क्या कहते हैं? वे अतीन्द्रिय आनंद के रसपान की विधि बताते हुए कहते हैं - 'मैं कौन हूँ, आया कहाँ से, और मेरा रूप क्या ? संबंध सुखमय कौन है, स्वीकृत करूँ परिहार क्या ? इसका विचार विवेक पूर्वक शान्त होकर कीजिए । तो सर्व आत्मिक ज्ञान अरु सिद्धांत का रस पीजिए।' अनादिकाल से अज्ञानी जीव की देह में व रागादि भावों में ही एकत्वबुद्धि है, वह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को नहीं जान पाया। इस कारण उसे आत्मानुभूति नहीं हुई, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई । देह की उत्पत्ति में वह अपनी उत्पत्ति मानता है, देह के विनाश में अपना विनाश मानता है। इसीप्रकार देह यदि गोरी-काली, रोगी- निरोगी, पतली-मोटी हो तो वह स्वयं को ही उत्पत्ति-विनाशरूप, गोरा-काला, रोगी- निरोगी, मोटा-दुबला मान लेता है। इसी तरह विकारी पर्याय में एकत्व होने से स्वयं को ही क्रोधी, मानी, मायावी व लोभी मान लेता है। अतः उससे कहते हैं कि भाई ! तू ऐसा विचार कर कि - “मैं तो ज्ञानानन्द स्वभावी अपने आप में स्वयं परिपूर्ण वस्तु हूँ । मुझे पूर्णता प्राप्त करने के लिए एवं सुखी होने के लिए किसी भी पर वस्तु के सहयोग की किंचित् भी आवश्यकता नहीं है। काला गोरा आदि तो पुद्गल के परिणाम हैं। जब मुझमें जड़ पुद्गल जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्शादि हैं ही नहीं; तो मेरे काले-गोरे होने की तो बात ही कहाँ से आई?
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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