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________________ विवेकी और सदासुखी के द्वारा निरन्तर गहन अध्ययन, मनन और चिन्तन करने से दिन प्रतिदिन उनके ज्ञान में वृद्धि एवं प्रतिभा में विकास हो रहा था। अब उन्होंने घर-बाहर की सब चिन्ताएँ छोड़कर अपने जीवन को आत्महित में समर्पित करने का संकल्प कर लिया था। उनकी इस आत्मोन्नति से मैं बेहद प्रसन्न था । पर संन्यास और समाधि के संबंध में वे अभी भी भ्रमित थे। वस्तुतः वे अभी वस्तुस्वरूप के यथार्थ तक नहीं पहुंच पाये थे। उन्होंने सुन रखा था कि - "जिसतरह साल भर में पढ़ाई करने पर भी यदि विद्यार्थी परीक्षा में सफल नहीं होता तो उसका श्रम सार्थक नहीं माना जाता। उसीतरह जिनका मरण समाधिपूर्वक होता है, उनका ही मानव जीवन सार्थक माना जाता है और अब तक की साधना-आराधना सफल समझी जाती है।" इसकारण वे अपने समाधिमरण के विषय में बहुत सजग थे, समाधि से संबंधित विषयों का अध्ययन-मनन भी बहुत किया करते थे; पर अभी तक वे मृत्यु को महोत्सव के रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। इस संबंध में विवेकी का कहना था - "जो जीवन भर मृत्यु के भय से भयभीत रहे हों, जिन्हें प्रतिपल मौत का आतंक आतंकित किए रहता हो, मरण की कल्पना मात्र से जिनका दिल दहल जाता हो, हृदय काँप उठता हो, वे मृत्यु जैसी दुःखद दुर्घटना को महोत्सव के रूप में कैसे मना सकते हैं? उनके लिए वह मनहूस घड़ी महोत्सव जैसी सुखद कैसे हो सकती है? महोत्सव किसी भी प्रकार का क्यों न हो, वह तो हर्ष के माहौल में ही मनाया जाता है, एक सुखद प्रसंग ही माना जाता है। चाहे वह किसी विदाई की बेला/११ का जन्मोत्सव हो, विवाहोत्सव हो, अथवा धार्मिक, सामाजिक व राष्ट्रीय उत्सव हो - सभी महोत्सव प्रसन्नता के प्रतीक ही होते हैं। ___ अपनी बात के स्पष्टीकरण में उसका कहना था कि - "यदि मरने वाला व्यक्ति बहुत बड़ा आदमी हो तो उसकी शवयात्रा बहुत विशाल हो सकती है, उसकी चिंता चंदन की बनाई जा सकती है, उसका अन्तिम संस्कार राष्ट्रीय सम्मान के साथ किया जा सकता है, पर उस दुःखद प्रसंग को महोत्सव नहीं कहा जा सकता। जिस कुटुम्ब-परिवार, समाज या राष्ट्र की ऐसी अपूरणीय क्षति हुई हो, जिसकी पूर्ति संभव ही नहीं हो, भला वह उस अपूरणीय क्षति पर प्रसन्नता सूचक महोत्सव कैसे मना सकता है? जिन्हें दिवंगत व्यक्ति के प्रति असीम स्नेह है, अटूट प्रेम है, हार्दिक अनुराग है, उसकी चिरविदाई में वे प्रसन्न कैसे हो सकते हैं? मोही व्यक्तियों के लिए तो मृत्यु इष्ट वियोग का कारण होने से दुःखद ही होती है। भला वे इस अन्तहीन वियोग की निमित्तभूत दुःखद मृत्यु को महोत्सव का रूप कैसे दे सकते हैं?" कल्पना कीजिए - "कदाचित् किसी ने किसी की मृत्यु पर हर्ष सूचक वाद्यध्वनि भी बजवा दी तो लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे? फिर भी हमारे आचार्यों या मनीषियों ने मृत्यु को महोत्सव की संज्ञा देकर ऐसी असंभव कल्पना क्यों कर डाली?" विवेकी की यह ज्वलंत समस्या थी, जिसका समाधान उसे नहीं मिल पा रहा था; क्योंकि भौतिक जगत और हम-तुम सब प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते भी यही हैं कि मरने वाले अपने सभी प्रियजनों को रोताबिलखता छोड़कर सदा-सदा के लिए चले जाते हैं; फिर कभी नहीं मिलते । ऐसी स्थिति में कोई भी मृत्यु को महोत्सव कैसे मान सकता है? पर इसमें विवेकी की मूल भूल यह थी कि वह इस लोकोत्तर या आध्यात्मिक समस्या का समाधान भी इस भौतिक या लौकिक जगत में (42)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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