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________________ विदाई की बेला/१० मैंने कहीं पढ़ा था कि देवगति में सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्रों का तेतीस-तेतीस सागरों जैसा लम्बा समय तत्वचर्चा में मात्र तेतीस वर्ष की अल्प अवधि की भाँति बीत जाता है। उन्हें पता ही नहीं लगता, इतना लम्बा जीवन कब/कैसे बीत गया? पर मुझे यह बात अँचती नहीं थी कि कहाँ तो तेत्तीस सागरों की कल्पनातीत-अमाप अवधि और कहाँ तेत्तीस वर्षों की नगण्य अल्प अवधि। इतना लंबा समय इतनी अल्प अवधि की भाँति कैसे निकल जाता होगा? ___परन्तु जब मेरे उस पहाड़ी पर्यटन केन्द्र पर धार्मिक चर्चा में दो महीने दो दिन की भाँति निकल गये तब मुझे विश्वास हो गया कि तत्त्वचर्चा व सुखद वातावरण में ऐसा प्रतीत होना कोई असंभव बात नहीं है। आ रहे हैं। और हम भी कौन से वीतरागी हो गये हैं? हमें भी उनकी याद आने लगी हैं। अतः हमने एक-दो दिन में ही घर जाने का निश्चय कर लिया है।" मेरे द्वारा यह विचार प्रगट करने पर उन लोगों में वैसी ही प्रतिक्रिया हुई, जैसी मुझे संभावना थी। कोई भी व्यक्ति मुझे वापिस घर जाने देने के लिए मन से राजी नहीं था। इधर मेरे हृदय में भी उनके प्रति अटूट धर्म स्नेह हो गया था। अतः मैं भी उनका साथ छोड़ने की कल्पना मात्र से भावुक हो उठा था। ___ इस मोह की महिमा ही कुछ ऐसी विचित्र है कि दोनों तरफ से ही मार करता है। इसीकारण तो साधु-संत चातुर्मास के अतिरिक्त एक स्थान पर अधिक काल तक नहीं रुकते । अन्यथा यह मोह उन्हें भी अपने मोहजाल में फाँसे बिना नहीं मानता। वस्तुतः बहता पानी व भ्रमता योगी ही पवित्र रहता है - चौमासे में एक साथ चार माह तक एक ही स्थान पर रुकना तो साधु-संतों की बाध्यता है, मजबूरी है; पर वे उन चौमासे के दिनों में भी इस मोह-माया से पूर्ण सावधान रहते हैं, गृहस्थों के संपर्क में अधिक नहीं रहते । उनसे दूर ही रहते हैं और रहना भी चाहिए; क्योंकि गृहस्थों के अधिक सान्निध्य से उन्हें दोष लगता है, उनमें मोह उत्पन्न होने की संभावना भी रहती है। जब निर्मोही साधु-संतों के जीवन में यह संभावना हो सकती है तो हम-तुम जैसे साधारण श्रावकों की तो बात ही क्या है? हम-तुम तो वैसे भी मोह-माया में आकंठ निमग्न हैं। इस दो महीने के समय में ही घर से बेटे-बहुओं और पोते-पोतियों का अनेक बार बुलावा आ चुका था और हमें भी कुछ-कुछ उनकी याद सताने लगी थी। एक दिन मन में विचार आया कि - "जिज्ञासुओं की जिज्ञासा तो उस अग्नि के समान है, जो घी की आहूतियों से कभी तृप्त नहीं होती। आखिर कभी न कभी तो घर जाना ही होगा। जब जायेंगे, ये लोग तो तभी दुःखी होंगे और इनका अधिक से अधिक दिनों तक रोकने का आग्रह कभी कम नहीं होगा। इसमें इन बेचारों का दोष भी क्या है, राग का तो स्वरूप ही ऐसा है। अत: एक न एक दिन तो थोड़ा बहुत कठोर रुख अपनाना ही पड़ेगा। अतः क्यों न कल ही कह दिया जाय कि - "अब हमें शीघ्र ही घर पहुँचना है। सभी लोग बहुत याद कर रहे हैं। बुलावे के संदेशों पर संदेश उस पहाड़ी पर्यटन केन्द्र पर दो माह तक रहने से और समय-समय पर सदासुखी व विवेकी के घर आते-जाते रहने से उनके पूरे परिवार के निकट संपर्क में आने के कारण उन सबसे मेरा घनिष्ठ परिचय तो हुआ ही; मेरी विचारधारा का एवं गृहस्थोचित लोक-व्यवहार का भी उनके परिवार (39)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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