SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 629
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१० समयसार ज्ञाननय है और सुनिश्चल संयम अर्थात् आत्मा में ही लीन हो जाना, आत्मा का ही ध्यान करना क्रियानय है । अरे भाई ! आत्मध्यान की क्रिया ही सुनिश्चल संयम है। ( वसंततिलका ) स्याद्वाददीपितलसन्महसि शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते प्रकाशे मयीति । किं बंधमोक्षपथपातिभिरन्यभावैर्नित्योदयः परमयं स्फुरतु स्वभाव: ।।२६९।। चित्रात्म-शक्ति-समुदायमयोऽयमात्मा सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखंड्यमानः । तस्माद - खंडम - निराकृत-खंडमेकमेकांतशांतमचलं चिदहं महोऽस्मि ।।२७० ।। तात्पर्य यह है कि आत्मज्ञान और आत्मध्यान से ही साधकदशापूर्वक साध्यदशा प्रगट होती है, उपायपूर्वक उपेय प्राप्त होता है, मोक्षमार्गपूर्वक मोक्ष की सिद्धि होती है। साध्यदशा में अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य की प्राप्ति हो जाती है । इसप्रकार वे अनंतकाल तक सहज ज्ञाता-दृष्टा रहते हुए अनंत-आनन्द को भोगते रहते हैं । प्रश्न : कहीं-कहीं ऐसा भी तो आता है कि तीन कषाय के अभावरूप वीतरागभाव और महाव्रतादि के शुभभाव में भी मित्रता है । इस कथन का क्या अभिप्राय है ? T उत्तर : साधकदशा में तीन कषाय के अभावरूप वीतरागपरिणति अर्थात् शुद्धभाव और महाव्रतादि के शुभभाव एकसाथ पाये जाते हैं। यद्यपि उक्त दोनों भाव परस्पर विरोधी भाव हैं। एक शुद्धभाव है और दूसरा अशुद्ध, एक बंध के अभावका कारण है और दूसरा शुभबंध का कारण है; तथापि उक्त दोनों भावों में ऐसा विरोध नहीं है कि वे एकसाथ रह ही न सकें। साधकदशा में वे एकसाथ पाये जाते हैं - मात्र इतना बताने के लिए उनमें मैत्रीभाव बता दिया जाता है। इससे अधिक कुछ नहीं समझना । इसप्रकार इन कलशों में यही कहा गया है कि ज्ञानमात्र आत्मा में ही साध्य-साधकभाव होने में स्याद्वादी को कोई बाधा नहीं आती। इसी आशय के और भी अनेक कलश हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( वसंततिलका ) महिमा उदित शुद्धस्वभाव की नित । स्याद्वाददीपित लसत् सद्ज्ञान में जब ।। तब बंध- मोक्ष मग में आपतित भावों । से क्या प्रयोजन है तुम ही बताओ ॥ २६९ ॥ निज शक्तियों का समुदाय आतम । होता यदृष्टियों विनष्ट से ॥
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy