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________________ परिशिष्ट ६०९ साधकपने को पा वे सिद्ध होते। अर अज्ञ इसके बिना परिभ्रमण करते ।।२६६।। (वसंततिलका) चित्पिंडचंडिमविलासिविकासहास: शुद्ध-प्रकाश-भर-निर्भर-सुप्रभातः। आनंद-सुस्थित-सदास्खलितैक-रूपस्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा ।।२६८।। (वसंततिलका) स्याद्वाद कौशल तथा संयम सुनिश्चल । से ही सदा जो निज में जमे हैं। वे ज्ञान एवं क्रिया की मित्रता से। सुपात्र हो पाते भूमिका को ।।२६७।। किसी भी प्रकार से जिनका मोह दूर हो गया है और जो ज्ञानमात्र निजभावमय अकंप भूमिका का आश्रय लेते हैं; वे साधकदशा को प्राप्त कर अन्ततः सिद्धदशा को प्राप्त कर लेते हैं। स्याद्वाद में प्रवीणता और सुनिश्चल संयम के द्वारा अपने में उपयुक्त रहता हुआ जो पुरुष प्रतिदिन अपने को भाता है; वही पुरुष ज्ञाननय और क्रियानय की तीव्र मैत्री का पात्र होता हुआ इस ज्ञानमात्र निजभावमयी भूमिका का आश्रय करता है। (वसंततिलका ) उदितप्रभा से जो सुप्रभात करता। चित्पिण्ड जो है खिला निज रमणता से ।। जो अस्खलित है आनन्दमय वह । होता उदित अद्भुत अचल आतम ।।२६८।। चैतन्यपिण्ड के प्रचण्ड विलसित विकासरूप हास और शुद्धप्रकाश की अतिशयता के कारण जो सुप्रभात के समान है, आनन्द में सुस्थित जिसका अस्खलित एकरूप है और जिसकी ज्योति अचल है - ऐसा यह आत्मा आत्मा का आश्रय लेनेवालों को ही प्राप्त होता है। उक्त कलशों में प्रगट की गई आचार्यश्री की भावना का सार यह है कि स्याद्वाद की प्रवीणता अर्थात् ज्ञाननय और सुनिश्चल संयम अर्थात् क्रियानय के आश्रय से जो अपनीतमोही साधक निज आत्मा की साधना करते हैं; उनके साधकभाव का सुप्रभात होता है और वे साधक शीघ्र ही सिद्धदशा को प्राप्त कर लेते हैं और आत्मा को प्राप्त न करनेवाले अज्ञानी अज्ञान की काली रात्रि के घने अंधकार में विलीन होकर संसार परिभ्रमण करते हैं। ___ बहुत से लोग ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्री का अर्थ ऐसा करते हैं कि आत्मा के ज्ञान और महाव्रतादिरूप बाह्य क्रिया में तीव्र मित्रता है और इनके द्वारा ही साध्यभाव की सिद्धि होती है; किन्तु उनका यह अभिप्राय ठीक नहीं है। यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि स्याद्वाद की प्रवीणता से अर्थात् स्याद्वाद शैली में प्रतिपादित अनेकान्तात्मक आत्मा का स्वरूप समझना, अनुभव करना
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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