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________________ ४६४ समयसार मय) नहीं होता; इसलिए वहाँ कर्त-कर्मत्व और भोक्ता-भोक्तत्व का व्यवहार मात्र निमित्तनैमित्तिकभाव से ही है। तथात्मापि पुण्यपापादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, कायवाङ्मनोभिः पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति, कायवाङ्मनांसि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति, सुखदुःखादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः। ___ यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुक्तेच, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः। तथात्मापिचिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकंकर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलंभुंक्तेच, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वेसति तन्मयश्च भवति, तत:परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः ।।३४९-३५५ ।। उसीप्रकार आत्मा भी पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक पुण्य-पापादि कर्म को मन-वचन-कायरूप पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करणों के द्वारा करता है; मन-वचन-कायरूप पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करणों को ग्रहण करता है और पुद्गलपरिणामात्मक पुण्य-पापादि कर्म के सुखदुःखादि फल को भोगता है; परन्तु अनेकद्रव्यत्व के कारण उनसे अन्य होने से तन्मय नहीं होता; इसलिए वहाँ कर्तृ-कर्मत्व और भोक्ता-भोक्तृत्व का व्यवहार मात्र निमित्त-नैमित्तिकभाव से ही है। जिसप्रकार वही शिल्पी करने का इच्छुक होता हुआ चेष्टारूप अर्थात् कुण्डलादि करने के अपने परिणामरूप और हस्तादि के व्यापाररूप जो स्वपरिणामात्मक कर्म करता है तथा चेष्टारूप दुःखस्वरूप कर्म के स्वपरिणामात्मक फल को भोगता है और एकद्रव्यत्व के कारण कर्म और कर्मफल से अनन्य होने से तन्मय (कर्ममय और कर्मफलमय) है; इसलिए परिणाम-परिणामीभाव से कर्ता-कर्मपने और भोक्ता-भोग्यपने का निश्चय है। उसीप्रकार आत्मा भी करने का इच्छुक होता हुआ चेष्टारूप अर्थात् रागादि परिणामरूप और प्रदेशों के व्यापाररूप जो आत्मपरिणामात्मक कर्म करता है, चेष्टारूप कर्म के आत्मपरिणामात्मक दुःखरूप फल को भोगता है और एकद्रव्यत्व के कारण उनसे अनन्य होने से तन्मय है; इसलिए परिणाम-परिणामीभाव से वही कर्ता-कर्मपन और भोक्ता-भोग्यपन का निश्चय है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इन गाथाओं का भाव इसीप्रकार व्यक्त करते हए नयविभाग स्पष्ट कर देते हैं कि व्यवहारनय से आत्मा द्रव्यकर्मों का कर्ता-भोक्ता है और अशुद्धनिश्चयनय से भावकर्मों का कर्ता-भोक्ता है।। इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि परद्रव्यों के साथ तन्मय नहीं होने से, एकाकार नहीं होने से यह आत्मा उनका कर्ता-भोक्ता मात्र व्यवहारनय से ही कहा जाता है; परमार्थ से वह उनका कर्ता-भोक्ता नहीं है; तथापि उनको करने-भोगनेरूप अपने भावों का, तत्संबंधी योग और उपयोग का कर्ता अवश्य है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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