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________________ ४६३ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार नहीं होता। यथा शिल्पिकस्तुकर्म करोति न च स तु तन्मयो भवति । तथा जीवोऽपि च कर्म करोति न च तन्मयो भवति ।।३४९।। यथा शिल्पिकस्तुकरणैः करोति नचसतुतन्मयोभवति। तथा जीव: करणैः करोति न च तन्मयो भवति ।।३५०।। यथा शिल्पिकस्तुकरणानि गृह्णाति नचसतुतन्मयोभवति। तथा जीव: करणानि तु गृह्णाति न च तन्मयो भवति ।।३५१।। यथा शिल्पी तुकर्मफलंभुक्तेन च स तु तन्मयो भवति। तथा जीव: कर्मफलं भुंक्ते न च तन्मयो भवति ।।३५२।। एवं व्यवहारस्य तु वक्तव्यं दर्शनं समासेन । शृणु निश्चयस्य वचनं परिणामकृतं तु यद्भवति ।।३५३।। यथा शिल्पिकस्तुचेष्टांकरोतिभवति च तथानन्यस्तस्याः। तथा जीवोऽपिच कर्म करोति भवति चानन्यस्तस्मात् ॥३५४।। यथा चेष्टां कुर्वाणस्तु शिल्पिको नित्यदुःखितो भवति। तस्माच्च स्यादनन्यस्तथा चेष्टमानो दुःखी जीवः ।।३५५।। यथा खलु शिल्पी सुवर्णकारादिः कंडलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, हस्तकट्टकादिभिः परद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति, हस्तकुट्टकादीनि परद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति, ग्रामादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कुंडलादिकर्मफलंभुंक्तेच, नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः। जिसप्रकार शिल्पी करणों को ग्रहण करता है, परन्तु उनसे तन्मय नहीं होता; उसीप्रकार जीव करणों को ग्रहण करता है, पर उनसे तन्मय (करणमय) नहीं होता। जिसप्रकार शिल्पी कुण्डल आदि कर्म के फल को भोगता है; परन्तु वह उससे तन्मय नहीं होता; उसीप्रकार जीव भी पुण्य-पापादि पुद्गलकर्म के फल को भोगता है; परन्तु तन्मय (पुद्गलपरिणामरूप सुख-दुःखादिमय) नहीं होता। इसप्रकार व्यवहार का मत संक्षेप में दर्शाया। अब परिणाम विषयक निश्चय का मत (मान्यता) सुनो। जिसप्रकार शिल्पी चेष्टारूप कर्म करता है और वह उससे अनन्य है; उसीप्रकार जीव भी अपने परिणामरूप कर्म को करता है और वह जीव उस अपने परिणामरूप कर्म से अनन्य है। जिसप्रकार चेष्टारूप कर्म करता हआ शिल्पी नित्य दुःखी होता है; उसीप्रकार अपने परिणामरूप चेष्टा को करता हुआ जीव भी दुःखी होता है, दुःख से अनन्य है। उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जिसप्रकार शिल्पी कुण्डल आदि परद्रव्यपरिणामात्मक कर्म को हथौड़ा आदि परद्रव्यपरिणामात्मक करणों द्वारा करता है; हथौड़ा आदि परद्रव्य परिणामात्मक करणों को ग्रहण करता है और कुण्डल आदि कर्मफल को और परद्रव्यात्मक ग्रामादि को भोगता है; किन्तु अनेकद्रव्यत्व के कारण वह शिल्पी कर्म, करण आदि भिन्न होने से उनसे तन्मय (कर्मकरणादि
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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