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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ४५९ है और जो करता है; वह नहीं भोगता, अन्य ही भोगता है - ऐसा एकान्त भी नहीं है। इसीप्रकार जो भोगता है; वही करता है - ऐसा एकान्त भी नहीं है और जो भोगता है; वह नहीं करता, अन्य ही करता है - ऐसा एकान्त भी नहीं है। यतो हि प्रतिसमयं संभवदगुरुलघुगुणपरिणामद्वारेण क्षणिकत्वादचलितचैतन्यान्वयगुणद्वारेण नित्यत्वाच्च जीव: कैश्चित्पर्यायैर्विनश्यति, कैश्चित्तु न विनश्यतीति द्विस्वभावो जीवस्वभावः । ततो य एव करोति स एवान्यो वा वेदयते, य एव वेदयते स एवान्यो वा करोतीति नास्त्येकांतः। एवमनेकांतेऽपि यस्तत्क्षणवर्तमानस्यैव परमार्थसत्त्वेन वस्तुत्वमिति वस्त्वंशेऽपि वस्तुत्वमध्यास्य शुद्धनयलोभादृजुसूत्रैकांते स्थित्वा य एव करोति स एव न वेदयते, अन्य: करोति अन्यो वेदयते इति पश्यति स मिथ्यादृष्टिरेव द्रष्टव्यः, क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यंशानां वृत्तिमतश्चैतन्यचमत्कारस्य टंकोत्कीर्णस्यैवांत:प्रतिभासमानत्वात् ।।३४५-३४८ ।। (शार्दूलविक्रीडित ) आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकैः कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः। चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य प्रथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतै रात्मा व्युज्झित एष हारवदहो नि:सूत्रमुक्तेक्षिभिः ।।२०८।। इसप्रकार इन गाथाओं में चारों प्रकारों के एकान्तों का निषेध कर कर्ता-भोक्ता संबंधी अनेकान्त की स्थापना की गई है। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “प्रतिसमय होनेवाले अगुरुलघुत्वगुण के परिणमन द्वारा क्षणिक होने से और अचलित चैतन्य के अन्वयगुण द्वारा नित्य होने से जीव कितनी ही पर्यायों द्वारा नष्ट होता है और कितनी पर्यायों द्वारा नष्ट नहीं होता है। इसप्रकार जीव दो स्वभाववाला है। इसलिए जो करता है, वही भोगता है अथवा दूसरा ही भोगता है तथा जो भोगता है, वही करता है अथवा दूसरा ही करता है - ऐसा एकान्त नहीं है। ऐसा अनेकान्त होने पर भी जो पर्याय उससमय है, वही परमार्थ वस्तु है; इसप्रकार वस्तु के अंश में पूर्ण की मान्यता करके शुद्धनय के लोभ से ऋजुसूत्रनय के एकान्त में रहकर जो यह मानता है कि जो करता है, वह नहीं भोगता; दूसरा करता है और दूसरा भोगता है; उसे मिथ्यादृष्टि ही समझना चाहिए; क्योंकि पर्यायों का क्षणिकत्व होने पर भी पर्यायी आत्मा अंतरंग में नित्य ही भासित होता है।" पहले सांख्यों के समान आत्मा को सर्वथा नित्य और सर्वथा अकर्ता माननेवाले जैनों का निराकरण किया गया था और अब इन गाथाओं में बौद्धों के समान आत्मा को सर्वथा क्षणिक मानकर ‘करे अन्य और भोगे अन्य' माननेवाले जैनों को समझाया है। अंतत: यह सिद्ध किया है कि यह आत्मा नित्यानित्यात्मक है और नित्यद्रव्य की दृष्टि से देखने
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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