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________________ ३६९ बंधाधिकार यदि वास्तव में अध्यवसान के निमित्त से जीव बंधन को प्राप्त होते हैं और मोक्षमार्ग में स्थित जीव मुक्ति को प्राप्त करते हैं तो तू क्या करता है ? तात्पर्य यह है कि तेरा बाँधने-छोड़ने का अभिप्राय गलत ही सिद्ध हुआ न, व्यर्थ ही सिद्ध हुआ न ? __ परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि, बंधयामि मोचयामीत्यादि वा, यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि, परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात्, खकुसुमं लुनामीत्य-ध्यवसानवन्मिथ्यारूपं, केवलमात्मनोऽनायैव । कुतो नाध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारीति चेत् - यत्किल बंधयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यदबन्धनं मोचनं जीवानाम् । जीवस्त्वस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान्न बध्यते, न मुच्यते; सरागवीतरागयो:स्वपरिणामयोः सद्भावात्तस्याध्यवसायस्याभावेऽपि बध्यते, मुच्यते च।। ततः परत्राकिंचित्करत्वान्नेदमध्यवसानंस्वार्थक्रियाकारि, ततश्च मिथ्यैवेति भावः ।।२६६-२६७।। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “मैं परजीवों को दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ - इत्यादि तथा बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ - इत्यादि जो अध्यवसान हैं; वे सब परभाव का पर में व्यापार न होने के कारण अपनी अर्थक्रिया करनेवाले नहीं हैं; इसलिए “मैं आकाशपुष्प को तोड़ता हूँ' - ऐसे अध्यवसान की भाँति मिथ्यारूप हैं, मात्र अपने अनर्थ के लिए ही हैं। ___ यदि कोई यह कहे कि अध्यवसान अपनी क्रिया करने से अकार्यकारी है - इसका आधार क्या है तो उससे कहते हैं कि 'मैं बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ' - ऐसे अध्यवसान की अपनी अर्थक्रिया जीवों को बाँधना-छोड़ना है; किन्तु वह जीव तो हमारे इस अध्यवसाय का सद्भाव होने पर भी स्वयं के सराग परिणाम के अभाव से नहीं बँधता और स्वयं के वीतरागपरिणाम के अभाव से मुक्त नहीं होता; तथा हमारे उस अध्यवसाय के अभाव होने पर भी स्वयं के सरागपरिणाम के सद्भाव से बँधता है और स्वयं के वीतरागपरिणाम के सद्भाव से मुक्त होता है। इसलिए पर में अकिंचित्कर होने से हमारे ये अध्यवसानभाव अपनी अर्थक्रिया करनेवाले नहीं हैं; इसीलिए मिथ्या भी हैं - ऐसा भाव है।" उक्त दोनों गाथाओं के कथन का सार यह है कि यह जीव दूसरों को सुखी-दु:खी करने या बंध को प्राप्त करने या मुक्त करने के जो विकल्प (अध्यवसान) करता है। वे सभी मिथ्या हैं, निष्फल हैं: क्योंकि इसके उन विकल्पों के कारण अन्य जीव सुखी-दुःखी नहीं होते, बंध को भी प्राप्त नहीं होते और मुक्त भी नहीं होते। दूसरों का हानि-लाभ तो इसके इन विकल्पों से कुछ होता नहीं; किन्तु इन विकल्पों से विकल्प करनेवाला स्वयं कर्मबंध को अवश्य प्राप्त हो जाता है। इसकारण ये अध्यवसानभाव करनेवाले के लिए अनर्थकारी ही हैं। ___ अरे भाई ! तेरे विकल्पों के कारण तेरी भावना के अनुसार परपदार्थों में कुछ भी परिणाम नहीं होता। उनमें जो कुछ भी होता है, उनकी पर्यायगत योग्यता के कारण और उनके भावों के अनुसार होता है। अत: तू विकल्प करके व्यर्थ ही परेशान क्यों होता है? इन व्यर्थ के विकल्पों से विराम लेने
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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