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________________ ३६८ समयसार अध्यवसानों के आश्रयभूत परपदार्थ बंध के कारण के कारण हैं; तथापि बंध के कारण नहीं हैं। उनका निषेध भी कारण के कारण होने के कारण ही किया जाता है। इसलिए उनके निषेध से अध्यवसानों का ही निषेध समझना चाहिए। एवं बन्धहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वाभावेन मिथ्यात्वं दर्शयति - दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि । जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ।।२६६।। अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बझंति कम्मणा जदि हि। मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करेसि तुमं ।।२६७।। दुःखितसुखितान्जीवान्करोमिबन्धयामितथाविमोचयामि। या एषा मूढमति: निरर्थिका सा खलु ते मिथ्याशारदाा अध्यवसाननिमित्तं जीवा बध्यते कर्मणा यदि हि। मुच्यते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वम् ।।२६७।। विगत गाथाओं में यह सिद्ध किया जा चुका है कि अध्यवसानभाव ही बंध के कारण हैं; अब आगामी गाथाओं में यह बताते हैं कि वे अध्यवसानभाव अपना कार्य करने में असमर्थ हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे अध्यवसानभाव बंध करनेरूप कार्य करने में असमर्थ हैं; अपितु यह है कि अध्यवसानों के अनुसार जगत में कार्य हों ही, यह जरूरी नहीं है। हमने किसी को मारने का भाव किया तो यह आवश्यक नहीं है कि वह मर ही जायेगा; क्योंकि उसके जीवन-मरण तो उसकी पर्यायगत योग्यता और उसके आयुकर्म के उदय-अनुदय पर आधारित हैं। यह कहकर आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि तेरे विकल्पानुसार तो जगत में कोई कार्य होता नहीं है, तू व्यर्थ ही विकल्प करके पाप-पुण्य क्यों बाँधता है ? उक्त भाव को प्रदर्शित करनेवाली गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) मैं सुखी करता दुःखी करता बाँधता या छोड़ता। यह मान्यता हे मढमति मिथ्या निरर्थक जानना ॥२६६।। जिय बँधे अध्यवसान से शिवपथ-गमन से छूटते । गहराई से सोचो जरा पर में तुम्हारा क्या चले ? ।।२६७।। मैं जीवों को दु:खी-सुखी करता हूँ, बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ - ऐसी जो तेरी मूढ़मति है; वह निरर्थक होने से वास्तव में मिथ्या है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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