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________________ ३३४ समयसार यदि ज्ञानी को ऐसा कर्म अवशता से आ पड़ता है तो भी जो ज्ञानी अपने अकंप परमज्ञानस्वभाव में स्थित है; वह ज्ञानी कर्म करता है या नहीं - यह कौन जानता है ? यहाँ यह कौन जानता है - कहकर ज्ञानीजन या सर्वज्ञ परमात्मा भी यह बात नहीं जानते - यह नहीं कहना चाहते हैं; बल्कि यह कहना चाहते हैं कि इस बात की गहराई को अज्ञानीजन नहीं जानते। (शार्दूलविक्रीडित) सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमंते परं यद्वजेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि। सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं जानंत: स्वमवध्यबोधवपुष बोधाच्च्यवंते न हि ।।१५४।। उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि कर्मफल की वांछा से रहित ज्ञानी जीवों के प्रत्याख्यानावरणादि कर्मों के उदय के अनुसार जो भी रागादिभाव और उन भावों के अनुसार जो भी बाह्य क्रियायें देखी जाती हैं; उनके कर्तृत्व और भोक्तृत्व से वे ज्ञानीजन भिन्न ही रहते हैं; उनका कर्ता-भोक्ता वे स्वयं को नहीं मानते; इसकारण उन्हें तत्संबंधी बंध भी नहीं होता, अपितु निर्जरा होती है। अब इसके बाद आगामी गाथाओं में आचार्यदेव सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का विवेचन आठ गाथाओं में करने जा रहे हैं; जिनमें सर्वप्रथम निःशंकित अंग है, जो जिनोपदिष्ट तत्त्वज्ञान के संबंध में शंका-आशंकाओं के अभावरूप तथा सप्तभयों के अभावरूप होता है। अब यहाँ नि:शंकित अंग संबंधी गाथा की उत्थानिकारूप एक कलश काव्य आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) वज्र का हो पात जो त्रैलोक्य को विह्वल करे। फिर भी अरे अतिसाहसी सददष्टिजन निश्चल रहें।। निश्चल रहें निर्भय रहें नि:शंक निज में ही रहें। निःसर्ग ही निजबोधवपु निज बोध से अच्युत रहें।।१५४।। जिसके भय से चलायमान होते हए तीनों लोक अपना मार्ग छोड़ देते हैं - ऐसा वज्रपात होने पर भी ये सम्यग्दृष्टि जीव स्वभाव से ही निर्भय होने से समस्त शंकाओं-आशंकाओं को छोड़कर ज्ञानशरीरी अपने आत्मा को अवध्य जानकर ज्ञान से च्युत नहीं होते। ऐसा परम साहस करने में मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ होते हैं। लोक में कितनी ही विपरीत परिस्थितियाँ क्यों न आवें, मरण का अवसर भी उपस्थित क्यों न हो जाये; किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव आकुलित नहीं होते, भयाक्रान्त नहीं होते; क्योंकि वे अच्छीतरह जानते हैं कि भौतिक देह का वियोग तो स्वाभाविक ही है; परन्तु मैं तो ज्ञानशरीरी हूँ, मेरे इस
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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