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________________ निर्जराधिकार ३३३ लिए कर्मरज का सेवन नहीं करता तो वह कर्म भी उसे अनेकप्रकार की सुखोत्पादक भोगसामग्री नहीं देता। __ आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में उक्त चार गाथाओं का चार पंक्तियों में सीधा-सादा सा अर्थ कर दिया है; जो इसप्रकार है - यथा कश्चित्पुरुषो फलार्थं राजानं सेवते ततः स राजा तस्य फलं ददाति, तथा जीवः फलार्थं कर्म सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं ददाति। ___ यथा च स एव पुरुषः फलार्थं राजानं न सेवते ततः स राजा तस्य फलं न ददाति, तथा सम्यग्दृष्टिः फलार्थं कर्म न सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं न ददातीति तात्पर्यम् ।।२२४-२२७ ।। (शार्दूलविक्रीडित ) त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किंत्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकंपपरमज्ञानस्वभावे स्थितो ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ।।१५३।। "जिसप्रकार कोई पुरुष फल के लिए राजा की सेवा करता है तो राजा उसे फल देता है; उसीप्रकार जीव फल के लिए कर्म का सेवन करता है तो कर्म उसे फल देता है तथा जिसप्रकार वही पुरुष फल के लिए राजा की सेवा नहीं करता तो वह राजा भी उसे फल नहीं देता; इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि फल के लिए कर्म का सेवन नहीं करता तो वह कर्म भी उसे फल नहीं देता - यह तात्पर्य है।" इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि अज्ञानी भोगों की आकांक्षा से कर्तृत्वबुद्धिपूर्वक शुभाशुभभावों में प्रवर्तता है; इसकारण वह अनंत संसार के कारणभूत मिथ्यात्वादि कर्मों से बँधता है और ज्ञानी जीव भोगों की आकांक्षा से कर्तृत्वबुद्धिपूर्वक शुभाशुभभावों में नहीं प्रवर्तता । यद्यपि उसके भी चारित्रमोह के उदय में भूमिकानुसार शुभाशुभभाव पाये जाते हैं; तथापि वह उनमें रत नहीं होता: इसकारण वह अनंत संसार के कारणभूत मिथ्यात्वादि कर्मों से नहीं बँधता; अपितु उसके पूर्वकर्म निर्जरा को प्राप्त होते हैं। - अब इसी भाव का पोषक कलश काव्य कहते हैं। जिसमें कहा गया है कि जो फल की वांछा नहीं रखता, उसे कर्ता कहना भी ठीक नहीं है। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) जिसे फल की चाहना वह करे - यह जंचता नहीं। यदि विवशता वश आ पड़े तो बात ही कुछ और है।। अकंप ज्ञानस्वभाव में थिर रहें जो वे ज्ञानिजन। सब कर्म करते या नहीं- यह कौन जाने विज्ञजन ।।१५३।। जिसने कर्म का फल छोड़ दिया, वह कर्म करता है - ऐसी प्रतीति तो हमें नहीं होती; किन्तु
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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