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________________ २५६ समयसार जीव का जो राग-द्वेष-मोह से रहित, ज्ञान से ही रचित भाव है और जो सर्व द्रव्यकर्म के आस्रव समूह को रोकनेवाला है; वह ज्ञानमयभाव सर्व भावानवों के अभावरूप है। अथ ज्ञानिनो द्रव्यास्रवाभावं दर्शयति - पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स । कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स ।।१६९।। पृथ्वीपिंडसमानाः पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययास्तस्य । कर्मशरीरेण तु ते बद्धाः सर्वेऽपि ज्ञानिनः ।।१६९।। ये खलु पूर्वमज्ञानेन बद्धा मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा द्रव्यास्रवभूताः प्रत्ययाः, ते ज्ञानिनो द्रव्यांतरभूता अचेतनपुद्गलपरिणामत्वात् पृथ्वीपिंडसमानाः। ते तु सर्वेऽपि स्वभावत एव कार्माणशरीरेणैव संबद्धा, न तुजीवेना अत: स्वभावसिद्ध एव द्रव्यास्रवाभावो ज्ञानिनः ।।१६९।। अब इस १६९वीं गाथा में ज्ञानी जीवों के द्रव्यास्रवों का अभाव है - यह बतलाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) जो बँधे थे भूत में वे कर्म पृथ्वीपिण्ड सम। ___वे सभी कर्म शरीर से हैं बद्ध सम्यग्ज्ञानि के ।।१६९।। उस ज्ञानी के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय पृथ्वी (मिट्टी) के ढेले के समान हैं और वे मात्र कार्मणशरीर के साथ बँधे हए हैं। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जो पहले अज्ञानावस्था में अज्ञान से बँधे हुए मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप द्रव्यास्रवभूत प्रत्यय हैं; वे अन्य द्रव्यस्वरूप प्रत्यय अचेतन पुद्गल परिणामवाले होने से ज्ञानी के लिए पृथ्वी (मिट्टी) के ढेले के समान हैं। वे समस्त द्रव्यकर्म स्वभावत: मात्र कार्मण शरीर के साथ ही बँधे हुए हैं, जीव के साथ नहीं; इसलिए ज्ञानी के स्वभाव से ही द्रव्यास्रवों का अभाव सिद्ध है।" प्रश्न - ज्ञानी के मिथ्यात्व है ही कहाँ, जिसे यहाँ पृथ्वी के ढेले के समान बताया जा रहा है? उत्तर - यह औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा बात है; क्योंकि क्षायिक सम्यग्दृष्टि के तो द्रव्यमिथ्यात्व (पौद्गलिक मिथ्यात्व) की सत्ता नहीं है; किन्तु औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के तो द्रव्यमिथ्यात्व की सत्ता रहती ही है। प्रश्न – पृथ्वी के ढेले के समान का क्या अर्थ है ? उत्तर - जिसप्रकार पृथ्वी का ढेला आत्मा के अहित में निमित्त भी नहीं है; उसीप्रकार सत्ता में पड़ा हुआ द्रव्यमिथ्यात्व आत्मा को मिथ्यादृष्टि बनाने में निमित्त भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार जहर कितना ही खतरनाक क्यों न हो, जबतक उसे खाया नहीं
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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