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________________ आस्रवाधिकार २५५ ज्ञानी के रागादि भावों से अमिश्रित भाव ही उत्पन्न होता है और इसी कारण उसे बंध नहीं होता। अथ रागाद्यसंकीर्णभावसंभवं दर्शयति - पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे। जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेदि ।।१६८।। पक्वे फले पतिते यथा न फलं बध्यते पुनर्वृन्तैः। जीवस्य कर्मभावे पतिते न पुनरुदयमुपैति ।।१६८।। यथा खलु पक्वं फलं वृन्तात्सकृद्विश्लिष्टं सत् न पुनर्वृन्तसंबंधमुपैति तथा कर्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृद्विश्लिष्टः सन् न पुनर्जीवभावमुपैति। एवं ज्ञानमयो रागाद्यसंकीर्णो भाव: संभवति ।।१६८।। (शालिनी) भावो रागद्वेषमोहैर्विना यो जीवस्य स्याद् ज्ञाननिवृत्त एव । रुन्धन् सर्वान् द्रव्यकर्मास्रवौघान् एषोऽभावः सर्वभावास्रवाणाम् ।।११४।। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) पक्वफल जिसतरह गिरकर नहीं जुड़ता वृक्ष से। बस उसतरह ही कर्म खिरकर नहीं जुड़ते जीव से ।।१६८।। जिसप्रकार पके हुए फल के गिर जाने पर, वह फल फिर उसी डंठल पर नहीं बँधता, उसीप्रकार जीव के कर्मभाव के झड़ जाने पर फिर वह उदय को प्राप्त नहीं होता। आत्मख्याति में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जिसप्रकार पका हआ फल एकबार डंठल से गिर जाने पर फिर उसके साथ संबंध को प्राप्त नहीं होता; उसीप्रकार कर्मोदय से उत्पन्न होनेवाला भाव जीवभाव से एकबार अलग हो जाने पर फिर जीवभाव को प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार रागादि से न मिला हुआ ज्ञानमयभाव उत्पन्न होता है।" 'जीव के कर्मभाव के झड़ जाने पर फिर वह उदय को प्राप्त नहीं होता' - गाथा के इस कथन का आत्मख्यातिकार ने यह अर्थ किया है कि 'कर्मोदय से उत्पन्न होनेवाला भाव जीवभाव से एकबार अलग हो जाने पर फिर जीवभाव को प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार रागादि से न मिला हुआ ज्ञानमयभाव उत्पन्न होता है।' इस गाथा की टीका लिखने के उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसी भाव का पोषक एक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) इन द्रव्य कर्मों के पहाड़ों के निरोधक भाव जो। हैं राग-द्वेष-विमोह बिन सदज्ञान निर्मित भाव जो।। भावास्रवों से रहित वे इस जीव के निजभाव हैं। वे ज्ञानमय शुद्धात्ममय निज आत्मा के भाव हैं।।११४।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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