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________________ २३२ अथोभयं कर्म बन्धहेतुं प्रतिषेध्य चागमेन साधयति - समयसार रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।। १५० ।। रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते जीवो विरागसंप्राप्तः । एषो जिनोपदेश: तस्मात् कर्मसु मा रज्यस्व । । १५० ।। यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बध्नीयात् विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागमः स सामान्येन रक्तत्वनिमित्त -त्वाच्छुभमशुभमुभयंकर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति च ।। १५० ।। वह कुट्टनी हथिनी चाहे सुन्दर हो, चाहे कुरूप हो; पर उसके मोह में पड़नेवाला हाथी बंधन को प्राप्त होता ही है। उक्त उदाहरण के माध्यम से यहाँ यह समझाया जा रहा है कि कर्म चाहे शुभ हों या अशुभ, पुण्यरूप हों या पापरूप; उनसे राग करनेवाले, उन्हें करने योग्य माननेवाले, उन्हें उपादेय माननेवाले संसाररूपी गड्ढे में गिरते हैं, फँसते हैं, बंधन को प्राप्त होते हैं । अतः कर्म चाहे शुभ हों या अशुभ, पुण्यरूप हों या पापरूप दोनों से ही राग व संसर्ग नहीं करना चाहिए, उन्हें उपादेय नहीं मानना चाहिए। - मोही हाथी के कुरूप हथिनी की अपेक्षा सुरूप (सुन्दर) हथिनी पर मोहित होने के अवसर अधिक हैं; इसकारण उक्त कुट्टनी हथिनी का कुरूप होने की अपेक्षा सुरूप होना अधिक खतरनाक है। उसीप्रकार मोही जीव के पापकर्मों की अपेक्षा पुण्यकर्मों पर मोहित होने के अवसर अधिक हैं; इसकारण पुण्य के संदर्भ में अधिक सावधानी अपेक्षित है। 99 इस १५०वीं गाथा की उत्थानिका आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार लिखते हैं- “अब यह बात आगम से सिद्ध करते हैं कि दोनों ही प्रकार के कर्म बंध के कारण हैं; इसकारण निषेध्य हैं ।' ( हरिगीत ) विरक्त शिवरमणी वरें अनुरक्त बाँधें कर्म को । जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ।। १५० ।। रागी जीव कर्म बाँधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मों से छूटता है; यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है, इसलिए कर्मों (शुभाशुभ कर्मों) से राग मत करो । इस महत्त्वपूर्ण गाथा की टीका आचार्य अमृतचन्द्र अत्यन्त संक्षेप में इसप्रकार लिखते हैं। - - यह आगमवचन "रागी जीव कर्म बाँधता है, वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मों से है छूटता सामान्यपने रागीपन की निमित्तता से शुभाशुभ दोनों कर्मों को अविशेषतया बंध का कारणरूप सिद्ध करता है और इसी कारण दोनों कर्मों का निषेध करता है।" ध्यान रहे, कि यहाँ रागी शब्द का अर्थ सामान्य राग नहीं लेना, अपितु शुभाशुभराग में एकत्वममत्व बुद्धिरूप राग लेना चाहिए, रागभावों का स्वयं को कर्ता-भोक्ता माननेरूप राग लेना चाहिए तथा शुभभावों में धर्म माननेरूप राग लेना चाहिए।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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