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________________ २२३ कर्ताकर्माधिकार ___ अब आगामी कलश में भी इसी बात को पुष्ट करते हुए कहते हैं कि जो कर्ता है, वह ज्ञाता नहीं हो सकता और जो ज्ञाता है, वह कर्ता नहीं हो सकता। मूल कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) जो कस्ता है वह केक्ल कर्ता ही हो। जो जाने बस वह केवल ज्ञाता ही होवे ।। जो करता वह नहीं जानता कुछ भी भाई। जो जाने वह करे नहीं कुछ भी हे भाई ।।९६।। (इन्द्रवज्रा) ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः। ज्ञप्ति: करोतिश्च ततो विभिन्ने ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च ।।९७।। जो करता है, वह मात्र करता ही है और जो जानता है, वह मात्र जानता ही है। जो करता है, वह कभी जानता नहीं और जो जानता है, वह कभी करता नहीं। तात्पर्य यह है कि जो कर्ता है, वह ज्ञाता नहीं है और जो ज्ञाता है, वह कर्ता नहीं है।। इसी बात का स्पष्टीकरण आगामी कलश में भी करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) करने रूप क्रिया में जानन भासित ना हो। जानन रूप क्रिया में करना भासित ना हो।। इसीलिए तो जानन-करना भिन्न-भिन्न हैं। इसीलिए तो ज्ञाता-कर्ता भिन्न-भिन्न हैं ।।९७।। करने रूप क्रिया के भीतर जाननेरूप क्रिया भासित नहीं होती और जाननेरूप क्रिया के भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती। इसलिए ज्ञप्ति क्रिया और करोति क्रिया दोनों भिन्नभिन्न हैं। इससे सिद्ध हुआ कि जो ज्ञाता है, वह कर्ता नहीं है। ___ उक्त सम्पूर्ण कथन का निष्कर्ष यह है कि जो व्यक्ति स्वयं में ही उत्पन्न होनेवाले रागादिभावों का कर्ता बनता है, उन्हें अपना जानता-मानता है, उसके कर्तृत्वबुद्धिरूप और स्वामित्वबुद्धि (ममत्वबुद्धि) रूप मिथ्यात्व होता है, अनन्तानुबंधी संबंधी राग-द्वेष होते हैं और वह उनका कर्ता होता है तथा वे उसके कर्म होते हैं। इसप्रकार अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि) रागादिभावों का कर्ता होता है और वे रागादिभाव उसके कर्म होते हैं। पर का कर्ता-भोक्ता तो ज्ञानी-अज्ञानी कोई भी नहीं है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के जो रागादिभाव (अप्रत्याख्यानादि संबंधी) पाये जाते हैं, वह उनका कर्ता नहीं बनता, उन्हें अपना नहीं मानता; इसकारण उसे उनमें कर्तृत्वबुद्धि और ममत्वबुद्धिरूप अज्ञान नहीं है, मिथ्यात्व नहीं है, अनन्तानुबंधी राग नहीं है; इसकारण वह उनका कर्ता भी नहीं है और इसीकारण उसे तत्संबंधी बंध भी नहीं होता। उसके जो अप्रत्याख्यानादि संबंधी रागादि विद्यमान हैं और तत्संबंधी जो बंध होता है, वे रागादिभाव व वह बंध अनंतसंसार का कारण न होने से यहाँ
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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